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Pratidin Ek Kavita
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Pratidin Ek Kavita

Author: Nayi Dhara Radio

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Description

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
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Agantuk | Agyeya

Agantuk | Agyeya

2025-12-2601:34

आगंतुक। अज्ञेयआँखों ने देखा पर वाणी ने बखाना नहीं।भावना ने छुआ पर मन ने पहचाना नहीं।राह मैंने बहुत दिन देखी, तुम उस पर से आए भी, गए भी,- कदाचित्, कई बार -पर हुआ घर आना नहीं।
हार न अपनी मानूँगा मैं !। गोपालदास "नीरज"चाहे पथ में शूल बिछाओचाहे ज्वालामुखी बसाओ,किन्तु मुझे जब जाना ही है -तलवारों की धारों पर भी, हँस कर पैर बढ़ा लूँगा मैं ! मन में मरू-सी प्यास जगाओ,रस की बूँद नहीं बरसाओ,किन्तु मुझे जब जीना ही है -मसल-मसल कर उर के छाले, अपनी प्यास बुझा लूँगा मैं !हार न अपनी मानूंगा मैं ! चाहे चिर गायन सो जाए,और ह्रदय मुर्दा हो जाए,किन्तु मुझे अब जीना ही है -बैठ चिता की छाती पर भी, मादक गीत सुना लूँगा मैं !हार न अपनी मानूंगा मैं !
तुम्हारी आँखें।पराग पावन कितनी सुंदर हैं तुम्हारी आँखें मुझे कुछ और चाहिए जो कहा न गया हो आँखों के बारे में इतनी सुंदर आँखों से कितनी सुंदर दुनिया दिखती होगी और तुम्हारा काजल ओह जैसे पानी पर पानी बरसता है अपनी ही उछाल को उत्सव में बदलते हुए
चीख़ो दोस्त - प्रतिभा कटियारचीख़ो दोस्तकि इन हालात मेंअब चुप रहना गुनाह हैऔर चुप भी रहो दोस्तकि लड़ने के वक़्त मेंमहज़ बात करना गुनाह हैफट जाने दो गले की नसेंअपनी चीख़ सेकि जीने की आख़िरी उम्मीद भीजब उधड़ रही होतब गले की इन नसों कासाबुत बच जाना गुनाह हैचलो दोस्तकि सफ़र लंबा है बहुतठहरना गुनाह हैलेकिन कहीं न जाते हों जो रास्तेउन रास्तों पर  बेसबब चलते  जानाभी तो गुनाह हैहँसो दोस्तउन निरंकुश होती सत्ताओं परजो अपनी घेरेबंदी में घेरकर, गुमराह करकेहमारे ही हाथों हमारी तक़दीरों परलगवा देते हैं तालेकि उनकी कोशिशों परनिर्विकार रहना गुनाह हैऔर रो लो दोस्त किबेवजह ज़िंदगी से महरूम कर दिए गए लोगों केलिए न रोना भी गुनाह हैमर जाओ दोस्त कितुम्हारे जीने सेजब फ़र्क़ ही न पड़ता हो दुनिया कोतो जीना गुनाह हैऔर जियो दोस्त किबिना कुछ किएयूँ हीमर जाना गुनाह है...
अग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!। हरिवंशराय बच्चनअग्निपथ! अग्निपथ! अग्निपथ!वृक्ष हों भलें खड़े,हों घने, हों बड़ें,एक पत्र-छाँह भी माँग मत, माँग मत, माँग मत!अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!तू न थकेगा कभी!तू न थमेगा कभी!तू न मुड़ेगा कभी!—कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ!अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!यह महान दृश्य है—चल रहा मनुष्य हैअश्रु-स्वेद-रक्त से लथपथ, लथपथ, लथपथ!अग्नि पथ! अग्नि पथ! अग्नि पथ!
जो शिलाएँ तोड़ते हैं । केदारनाथ अग्रवालज़िंदगी कोवह गढ़ेंगे जो शिलाएँ तोड़ते हैं,जो भगीरथ नीर की निर्भय शिराएँ मोड़ते हैं।यज्ञ को इस शक्ति-श्रम केश्रेष्ठतम् मैं मानता हूँ!!ज़िंदगी कोवे गढ़ेंगे जो खदानें खोदते हैं,लौह के सोए असुर को कर्म-रथ में जोतते हैं।यज्ञ को इस शक्ति श्रम केश्रेष्ठतम् मैं मानता हूँ!!ज़िंदगी कोवे गढ़ेंगे जो प्रभंजन हाँकते हैं,शूरवीरों के चरण से रक्त-रेखा आँकते हैं।यज्ञ को इस शक्ति-श्रम केश्रेष्ठतम् मैं मानता हूँ!!ज़िंदगी कोवे गढ़ेंगे जो प्रलय को रोकते हैं,रक्त से रंजित धरा पर शांति का पथ खोजते हैं।यज्ञ को इस शक्ति-श्रम केश्रेष्ठतम् मैं मानता हूँ!!मैं नया इंसान हूँ इस यज्ञ में सहयोग दूँगा।ख़ूबसूरत ज़िंदगी की नौजवानी भोग लूँगा।
एक बिजूके की प्रेम कहानी | अनामिका मैं हूँ बिजूका एक ऐसे खेत काजिसमें सालों से कुछ नहीं उगाबेकार पड़ा पड़ा धसक गया है मेरा हाड़ी सा गोल गोल माथा, उखड़ गई हैं मूँछें लचक गए हैं कंधेएक तरफ़ झूल गया है कुर्ता कुर्ते की जेबी में चुटुर- पुटुर करती है लेकिन नीले पीले पंखों वाली इक छोटी-सी चिड़ियाएक वक़्त था जब यह चिड़िया मुझ से बहुत डरती थीधीरे-धीरे उसका डर निकल गयाकल मेरी जेबी में अंडे दिए उसने मेरे भरोसे ही उन्हें छोड़ कर जाती है वह दाना लानेबहुत दूरनया नया है मेरी ख़ातिर भरोसे का कोमल एहसासकाठ के कलेजे में मेरे बजने लगा है इकतारादूर तलक है उजाड़ मगर यह जो चटकने चमकने लगी है बूटी भरोसे कीउसकी ही मूक प्रार्थना फूली है शायद कि बदलियाँ उमड़ आई हैं अचानकखिल जाएंगी बूटियाँ अब तोबस जाएगा फिर से यह उजड़ा दयारलेकिन जब खेत हरे हो जाएँगेमुझको फिर से भयावह बना देंगे खेतों के मालिकहाड़ी मुख पर मेरे कोलतार पोतेंगेलाल नेल पॉलिश से आँखें बनाएँगी ख़ून टपकती हुई, मक्के के मूंछों पर लस्सा लगाकर मुझे बनाएंगे ख़ूब कड़क ढह जाएगी तब तो मेरी निरीहता जब मैं भयावह हो जाऊंगा फिर से डर जाएगी मेरी चिड़िया मुझी से और दूर उड़ जाएगी सदा के लिए क्या बेबसी प्यार का घर हैप्यार हमदर्द नगर है?
चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती । त्रिलोचनचंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हतीमैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती हैखड़ी-खड़ी चुपचाप सुना करती हैउसे बड़ा अचरज होता है :इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वरनिकला करते हैंचंपा सुंदर की लड़की हैसुंदर ग्वाला है : गायें-भैंसे रखता हैचंपा चौपायों को लेकरचरवाही करने जाती हैचंपा अच्छी हैचंचल हैन ट ख ट भी हैकभी-कभी ऊधम करती हैकभी-कभी वह क़लम चुरा देती हैजैसे तैसे उसे ढूँढ़ कर जब लाता हूँपाता हूँ—अब काग़ज़ ग़ायबपरेशान फिर हो जाता हूँचंपा कहती है :तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भरक्या यह काम बहुत अच्छा हैयह सुनकर मैं हँस देता हूँफिर चंपा चुप हो जाती हैउस दिन चंपा आई, मैंने कहा किचंपा, तुम भी पढ़ लोहारे गाढ़े काम सरेगागांधी बाबा की इच्छा है—सब जन पढ़ना-लिखना सीखेंचंपा ने यह कहा किमैं तो नहीं पढ़ूँगीतुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैंवे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगेमैं तो नहीं पढ़ूँगीमैंने कहा कि चंपा, पढ़ लेना अच्छा हैब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी,कुछ दिन बालम संग साथ रह चला जाएगा जब कलकत्ताबड़ी दूर है वह कलकत्ताकैसे उसे सँदेसा दोगीकैसे उसके पत्र पढ़ोगीचंपा पढ़ लेना अच्छा है!चंपा बोली : तुम कितने झूठे हो, देखा,हाय राम, तुम पढ़ लिखकर इतने झूठे होमैं तो ब्याह कभी न करूँगीऔर कहीं जो ब्याह हो गयातो मैं अपने बालम को संग साथ रखूँगीकलकत्ता मैं कभी न जाने दूँगीकलकत्ते पर बजर गिरे।
दिल में हर दम चुभने वाला ।  माधव कौशिक दिल में हर दम चुभने वाला काँटा सही सलामत देआँखें दे या मत दे लेकिन सपना सही सलामत देहमें तो युद्ध आतंक भूख से मारी धरती बख़्शी हैआने वाली पीढ़ी को तो दुनिया सही सलामत देदावा है मैं  इक दिन  उस को दरिया कर के छोड़ूँगाखुली हथेली पर आँसू का क़तरा सही सलामत देबच्चे भी अब खेल रहे हैं ख़तरनाक हथियारों सेबचपन की बग़िया को कोई गुड़िया सही सलामत देआधी और अधूरी हसरत कब तक ज़िंदा रक्खेंगेकाग़ज़ पर ही दे लेकिन घर का नक़्शा सही सलामत देभीड़ भरी महफ़िल में सबकी अलग अलग पहचान तो हो इसीलिए हर एक इंसान को चेहरा सही सलामत दे दिल में हर दम चुभने वाला काँटा सही सलामत देआँखें दे या मत दे लेकिन सपना सही सलामत दे
इतनी सी आज़ादी । रूपम मिश्रचाहती हूँ जब घर-दुवार के सब कामों से छूटूँ तो हर साँझ तुम्हें फोन करूँतुमसे बातें करूँ  देश - दुनिया की सेवार- जवार बदलने और न बदलने की पेड़ पौधों के नाम से जानी जाती जगहों की  तुमसे ही शोक कर लेती उस दुःख का कि पाट दिए गये गाँव के सभी कुवें ,गड़हे साथी और ढेरवातर पर अब कोई ढेरा का पेड़ नहीं है  अब तो चीन्ह में भी नहीं बची बसऊ के बाग और मालदहवा की अमराई की राह में चाहकर भी अब कोई नहीं छहाँता मौजे, पुरवे विरान लगते हैं  उनका हेल-मेल अब बस सुधियों में बचा हैनाली और रास्ते को लेकर मचे गंवई रेन्हे कीअबकी खूब सऊखे अनार के फूलों की तितलियाँ कभी -कभी आँगन में भी आ जाती हैं इस अचरज कीगिलहरी , फुदगुईया और एक जोड़ा बुलबुल आँगन में रोज़ आते हैं कपड़े डालने का तार उनका प्रिय अड्डा हैकुछ नहीं तो जैसे ये कि आज बड़ा चटक घाम हुआ थाऔर कल अंजोरिया बताशे जैसी छिटकी थी तुममें ही नहीं समाती तुम्हारी हँसी की   या अपने मिठाई-प्रेम की  तुम्हारे बढ़ते ही जा रहे वजन की जिसकी झूठी चिंता तुम मुझसे गाहे-बगाहे करते रहते होऔर बताती कि नहीं होते हमारे घरों में ऐसे बुजुर्ग कि दिल टूटने पर जिनकी गोद में सिर डाल कर रोया जा सके और जीवन में घटे प्रेम से इंस्टाग्राम पर हुए प्रेम का ताप ज़रा भी कम नहीं होता साथी , इस सच की याद दिलाती तुम्हें कार्तिक में जुते खेतों के सौंदर्य की अभिसरित माटी में उतरे पियरहूँ रंग कीऔर बार - बार तुमसे पूछती तुम्हें याद है धरती पर फूल खिलने के दिन आ गये हैं  इतना ही मिलना हमारे लिए बड़ा सुख होता इतनी सी आज़ादी के लिए हम तरसते हैं और सब कहते हैं अब और कितनी आज़ादी चाहिए ।
अपना अभिनय इतना अच्छा करता हूँ । नवीन सागरघर से बाहर निकलाफिर अपने बाहर निकल करअपने पीछे-पीछे चलने लगापीछे मैं इतने फ़ासले पर छूटता रहाकि ओझल होने से पहले दिख जाता थाएक दिनघर लौटने के रास्ते में ओझल हो गयाओझल के पीछे कहाँ जाताघर लौट आयादीवारें धुँधली पड़ कर झुक-सी गईंसीढ़ियाँ नीचे से ऊपरऊपर से नीचे होने लगींपर वह घर नहीं लौटाघर से बाहर निकलाफिर मुझसे बाहर निकल कर चला गयामैं आईने में देखता हूँवह आईने में से मुझे नहीं देखतामैं बार-बार लौटता हूँपर वह नहीं लौटताघर में किसी को शक नहीं हैमूक चीज़ें जानती हैं पर मुझसे पूछती नहीं हैंकि वहकहाँ गया और तुम कौन हो!अपना अभिनय इतना अच्छा करता हूँकि हूबहू लगता हूँदरवाज़े खुल जाते हैं -नींद के नीम अँधेरे चलचित्र में जागा हुआसूने बिस्तर पर सोता हूँ।
कोना । प्रिया जोहरी 'मुक्तिप्रिया’वोकोना थामेरे जीवन का,एक गहरा,सकरा,फिर भी विस्तृत-इतना कि उसमेंपूरा जीवन समा जाए।समा जाएँमेरी हर तकलीफ,हर रंज,हर तंज।उस कोने में बैठकरलिख सकती हूँअनगिनत प्रेम-पत्र,पढ़ सकती हूँमन की दो किताबें,तोड़ सकती हूँकई गुलाब,और गूँथ सकती हूँएक फूलों की माला।महसूस कर सकती हूँनदी का तेज,ताज़ी हवा का हर झोंका।देख सकती हूँ.हथेली पर रखाएक सफेद मोती,जो किसी चमत्कार साचमकता है।सजा सकती हूँबालों मेंगुलमोहर की लट,महक सकती हूँएक अनछुईखुशबू सी।खिल सकती हूँयूँ जैसेअभी-अभीकोई ताज़ा कमलखिला हो।
ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं। जौन एलियाठीक है ख़ुद को हम बदलते हैंशुक्रिया मश्वरत का चलते हैंहो रहा हूँ मैं किस तरह बरबाददेखने वाले हाथ मलते हैंहै वो जान अब हर एक महफ़िल कीहम भी अब घर से कम निकलते हैंक्या तकल्लुफ़ करें ये कहने मेंजो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैंहै उसे दूर का सफ़र दर-पेशहम सँभाले नहीं सँभलते हैंतुम बनो रंग तुम बनो ख़ुश्बूहम तो अपने सुख़न में ढलते हैंमैं उसी तरह तो बहलता हूँऔर सब जिस तरह बहलते हैंहै अजब फ़ैसले का सहरा भीचल न पड़िए तो पाँव जलते हैं
लोग पगडंडियाँ बनाएँगें। लक्ष्मीशंकर वाजपेयी रास्ते जब नज़र न आएँगेलोग पगडंडियाँ बनाएँगे।खुश न हो कर्ज़ के उजालों सेये अँधेरे भी साथ लाएँगे।ख़ौफ़ सारे ग्रहों पे है कि वहाँआदमी बस्तियाँ बसाएँगे।सुनते-सुनते गुज़र गई सदियाँमुल्क़ से अब अँधेरे जाएँगे।जीत डालेंगे सारी दुनिया कोवे जो अपने को जीत पाएँगे।दूध बेशक पिलाएँ साँपों कोउनसे लेकिन ज़हर ही पाएँगे।
जीवन की जय। मैथिलीशरण गुप्तमृषा मृत्यु का भय है,जीवन की ही जय है।जीवन ही जड़ जमा रहा है,निज नव वैभव कमा रहा है,पिता-पुत्र में समा रहा है,यह आत्मा अक्षय है,जीवन की ही जय है!नया जन्म ही जग पाता है,मरण मूढ़-सा रह जाता है,एक बीज सौ उपजाता है,स्रष्टा बड़ा सदय है,जीवन की ही जय है।जीवन पर सौ बार मरूँ मैं,क्या इस धन को गाड़ धरूँ मैं,यदि न उचित उपयोग करूँ मैं,तो फिर महा प्रलय है,जीवन की ही जय है।
प्रायश्चित । हेमंत देवलेकरइस दुनिया मेंआने-जाने के लिएअगर एक ही रास्ता होताऔर नज़र चुराकरबच निकलने के हज़ार रास्तेहम निकाल नहीं पातेतो वही एकमात्र रास्ताहमारा प्रायश्चित होताऔर ज़िन्दगी में लौटने कानैतिक साहस भी
वरदान माँगूँगा नहीं। शिवमंगल सिंह ‘सुमन’यह हार एक विराम हैजीवन महासंग्राम हैतिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं ।वरदान माँगूँगा नहीं ।।स्‍मृति सुखद प्रहरों के लिएअपने खण्डहरों के लिएयह जान लो मैं विश्‍व की सम्पत्ति चाहूँगा नहीं ।वरदान माँगूँगा नहीं ।।क्‍या हार में क्‍या जीत मेंकिंचित नहीं भयभीत मैंसंघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही ।वरदान माँगूँगा नहीं ।।लघुता न अब मेरी छुओतुम हो महान बने रहोअपने हृदय की वेदना मैं व्‍यर्थ त्‍यागूँगा नहीं ।वरदान माँगूँगा नहीं ।।चाहे हृदय को ताप दोचाहे मुझे अभिशाप दोकुछ भी करो कर्त्तव्य पथ से किन्तु भागूँगा नहीं ।वरदान माँगूँगा नहीं ।।
आओ, जल-भरे बरतन में । रघुवीर सहायआओ, जल-भरे बरतन में झाँकेंसाँस से पानी में डोल उठेंगी दोनों छायाएँचौंककर हम अलग-अलग हो जाएँगेजैसे अब, तब भी न मिलाएँगे आँखें, आओपैठी हुई शीतल जल में छाया साथ-साथ भीगेझुके हुए ऊपर दिल की धड़कन-सी काँपेकरती हुई इंगित कभी हाँ के, कभी ना केआओ जल-भरे बरतन में झाँके
औरत को चाहिए थी महज़ एक जेब। अदीबा ख़ानमऔरत को चाहिए थी महज़ एक जेबउसमें चन्द खनकते सिक्केजिनके के बल पर आज़ाद करने थेकुछ ऐसे पंछीजो पीढ़ी दर पीढ़ीकिसी महान षडयंत्र के तहतहोते आए थे क़ैद चाभियाँ पल्लू में बाँधनहीं भाता उन्हें रानियों का स्वाँगउन चाभियों ने बन्द कर रखे हैंकई क़ीमती संदूकजिनमें बन्द हैंख़ुद रानियाँ हीधूल फाँक रहीं गहनों कीकिसी हीरे किसी मोती की चमकनहीं कर रही उनके जीवन में उजालाउजाले के लिए उन्हेंनिकलना होगा इन क़ीमती  संदूकों से बाहररगड़ने होंगे तलवे जलती मिट्टी परक्योंकिइस रगड़ से ही बनते हैंरोशन सिक्केजिनकी चमक से बदल जाता हैंउस आदमी का लहज़ा जो कहता हैकि घर में पड़ी औरत मुफ़्त तोड़ती है रोटियाँदरअसल तुमने थमा दी औरत को चाभियाँबना दिया उन्हें रानीयांकेवल इसलिएकि तुम्हेंऔरत के पैर की रगड़ से निकलेसिक्कों से डर लगता हैकि तुम्हें औरत की जेब से डर लगता है।
अँधेरे के दिन । लक्ष्मीशंकर वाजपेयीबदल गए हैं अँधेरों के दिनअब वे नहीं निकलतेसहमे, ठिठके, चुपके-चुपके रात के वक्तवे दिन-दहाड़े घूमते हैं बस्ती मेंसीना ताने,कहकहे लगातेनहीं डरते उजालों सेबल्कि उजाले ही सहम जाते हैं इनसेअकसर वे धमकाते भी हैं उजालों कोबदल गए हैं अँधेरों के दिन।
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