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Pratidin Ek Kavita
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Pratidin Ek Kavita

Author: Nayi Dhara Radio

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Description

कवितायेँ जहाँ जी चाहे वहाँ रहती हैं- कभी नीले आसमान में, कभी बंद खिड़कियों वाली संकरी गली में, कभी पंछियों के रंगीन परों पर उड़ती हैं कविताएँ, तो कभी सड़क के पत्थरों के बीच यूँ ही उग आती हैं। कविता के अलग अलग रूपों को समर्पित है, हमारी पॉडकास्ट शृंखला - प्रतिदिन एक कविता। कीजिये एक नई कविता के साथ अपने हर दिन की शुरुआत।
965 Episodes
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फूले कदंब । नागार्जुनफूले कदंबटहनी-टहनी में कंदुक सम झूले कदंबफूले कदंब।सावन बीताबादल का कोप नहीं रीताजाने कब से तू बरस रहाललचाई आँखों से नाहकजाने कब से तू तरस रहामन कहता है,छू ले कदंबफूले कदंबफूले कदंब।
Nafi | Kishwar Naheed

Nafi | Kishwar Naheed

2025-11-2201:53

नफ़ी | किश्वर नाहीदमैं थी आईना फ़रोश* (विक्रेता)कोह-ए-उम्मीद* (आशा का पहाड़) के दामन मेंअकेली थी ज़ियाँ* (नुक़्सान) कोशिशसुरय्या की थी हम-दोशमुझे हर रोज़ हमा-वक़्त* (हर समय) थी बस अपनी ख़बरमैं थी ख़ुद अपने में मदहोशमैं वो तन्हा थीजिसे पैर मिलाने का सलीक़ा भी न थामैं वो ख़ुद-बीं* (आत्म-मुग्ध) थीजिसे अपने हर इक रुख़ से मोहब्बत थी बहुतमैं वो ख़ुद-सर* (अवज्ञाकारी) थीजिसे हाँ के उजालों से बहुत नफ़रत थीमैं ने फिर क़त्ल किया ख़ुद कोपिया अपना लहू हँसती रहीलोग कहते हैं हँसी ऐसी सुनी तक भी नहीं
Ma | Srinaresh Mehta

Ma | Srinaresh Mehta

2025-11-2101:51

माँ । श्रीनरेश मेहतामैं नहीं जानताक्योंकि नहीं देखा है कभी—पर, जो भीजहाँ भी लीपता होता हैगोबर के घर-आँगन,जो भीजहाँ भी प्रतिदिन दुआरे बनाता होता हैआटे-कुंकुम से अल्पना,जो भीजहाँ भी लोहे की कड़ाही में छौंकता होता हैमेथी की भाजी,जो भीजहाँ भी चिंता भरी आँखें लिए निहारता होता हैदूर तक का पथ -वही,हाँ, वही है माँ!!
रात यूँ दिल में तिरी खोई हुई याद आई | फ़ैज़ अहमद फ़ैज़रात यूँ दिल में तिरी खोई हुई याद आईजैसे वीराने में चुपके से बहार आ जाएजैसे सहराओं में हौले से चले बाद-ए-नसीमजैसे बीमार को बे-वज्ह क़रार आ जाए
नृत्य और परिकथाएँ | अन्वेषा राय 'मंदाकिनी'मेरे पाँव,बचपन से थिरकते रहे,किसी अनजान सवालिया धुन पर...मैं बढ़ती रही.. नाचती रही..मेरे जीवन का उद्देश्य यह खोज भर रहाकि मेरे इस जीवन संगीत का उद्गम कहाँ है ??मेरा यह कारवाँ जारी रहा...हर रोज़ मेरे पग उस संगीत की खोज मेंनृत्य करते चले गए !!मैं शायद नहीं जानती हूँकि जीवन के किस रोज़मेरा परी-कथाओं सेविश्वास का नाता जुड़ गया!परी-राजकुमार को लाँघकरमैं एक दिन इन कहानियों को हीअपना सर्वस्व दे बैठी,और मेरी कहानियों नेशंका का लेशमात्र भी ताप नहीं सहा !शायद कहानियों की किताबें भीये जानती थीकि हर विश्वास कि कीमतएक राजकुमार नहीं होता !!मेरा नृत्य सबने देखा,परिकथाएँ सुनाते वक्तमेरी आँखों की चमक भीसबको लुभाती रही...मगर हे प्रियतम,तुम्हारे सम्मुख मेरे यह पाँवमेरे काबू में नहीं रहे...एक दिन अचानक नाचते हुए यह रुक गएकि मेरी खोज पूरी हो चुकी थी,मेरे जीवन संगीत के स्त्रोतअब यह तुम्हारी धुन पर थिरकेंगेमृत्यु के पूर्व कभी ना रुकने के लिए..मेरे आँखों की यह चमकप्रेमाश्रु बन बह चुकी हैतुम्हारी हथेलियों मे...लोग कहते हैं कि मेरी आँखें बोलती हैं -"विश्वास की भाषा"कहती हैं किेतुम इनको खालीपन से कभी नहीं भरोगे !!
मैं और मैं! | साक़ी फ़ारुक़ीमैं हूँ मैंवो जिस की आँखों में जीते जागते दर्द हैंदर्द कि जिन की हम-राही में दिल रौशन हैदिल जिस से मैं ने इक दिन इक अहद (प्रतिज्ञा) किया थाअहद कि दोनों एक ही आग में जलते रहेंगेआग कि जिस में जल कर जिस्म हुआ ख़ाकिस्तर (राख)जिस्म कि जिस के कच्चे ज़ख़्म बहुत दुखते थेज़ख़्म कि जिन का मरहम वक़्त के पास नहीं हैवक़्त कि जिस की ज़द में सारे सय्यारे हैंसय्यारे (ग्रह) जो क़ाएम हैं अपनी ही कशिश परऔर कशिश के ताने-बाने टूट चले हैंकौन तमाशाई है? मैं हूँ ... और तमाशामैं हूँ मैं!
ठाकुर का कुआँ। ओमप्रकाश वाल्मीकिचूल्हा मिट्टी कामिट्टी तालाब कीतालाब ठाकुर का।भूख रोटी कीरोटी बाजरे कीबाजरा खेत काखेत ठाकुर का।बैल ठाकुर काहल ठाकुर काहल की मूठ पर हथेली अपनीफ़सल ठाकुर की।कुआँ ठाकुर कापानी ठाकुर काखेत-खलिहान ठाकुर केगली-मुहल्ले ठाकुर केफिर अपना क्या?गाँव?शहर?देश?
सूर्य और सपने।चंपा वैदसूर्य अस्त हो रहा हैपहली बारइस मंज़िल परखड़ी वह देखती हैबादलों कोजो टकटकी लगादेखते हैंसूर्य के गोले कोयह गोला आगलगा जाता है उसके अंदरकह जाता हैकल फिर आऊँगापूछूँगा क्या सपने देखे?
क्या हम सब कुछ जानते हैं । कुँवर नारायणक्या हम सब कुछ जानते हैंएक-दूसरे के बारे मेंक्या कुछ भी छिपा नहीं होता हमारे बीचकुछ घृणित या मूल्यवानजिन्हें शब्द व्यक्त नहीं कर पातेजो एक अकथ वेदना में जीता और मरता हैजो शब्दित होता बहुत बादजब हम नहीं होतेएक-दूसरे के सामनेऔर एक की अनुपस्थिति विकल उठती हैदूसरे के लिए।जिसे जिया उसे सोचता हूँजिसे सोचा उसे दोहराता हूँइस तरह अस्तित्व में आता पुनःजो विस्मृति में चला गया थाजिसकी अवधि अधिक से अधिकसौ साल है।एक शिला-खंड परदो तिथियाँबीच की यशगाथाएँहमारी सामूहिक स्मृतियों मेंसंचित हैं।कभी-कभी मिल जाती हैंइस संचय मेंव्यक्ति की आकांक्षाएँऔर विवशताएँतब जी उठता हैदो तिथियों के बीच का वृत्तांत।
निःशब्द भाषा में। नवीन सागरकुछ न कुछ चाहता है बच्चाबनानाएक शब्द बनाना चाहता है बच्चानयाशब्द वह बना रहा होता है किउसके शब्द को हिला देती है भाषाबच्चा निःशब्दभाषा में चला जाता हैक्या उसे याद आएगा शब्दस्मृति में हिलाजब वह रंगमंच पर जाएगाबरसों बादभाषा में ढूँढ़ता अपना सचकौंधेगा वह क्या एक बार!बनाएगा कुछ याचला जाएगा बना-बनायादीर्घ नेपथ्य मेंबच्चाकि जो चाहता हैबनानाअभी कुछ न कुछ।
बेचैन चील।  गजानन माधव मुक्तिबोधबेचैन चील!!उस-जैसा मैं पर्यटनशीलप्यासा-प्यासा,देखता रहूँगा एक दमकती हुई झीलया पानी का कोरा झाँसाजिसकी सफ़ेद चिलचिलाहटों में है अजीबइनकार एक सूना!!
मतलब है | पराग पावनमतलब है सब कुछ पा लेने की लहुलुहान कोशिशों का थकी हुई प्रतिभाओं और उपलब्धियों के लिए तुम्हारी उदासीनता का गहरा मतलब है जिस पृथ्वी पर एक दूब के उगने के हज़ार कारण हों तुम्हें लगता है तुम्हारी इच्छाएँ यूँ ही मर गईं एक रोज़मर्रा की दुर्घटना में 
लयताल।कैलाश वाजपेयीकुछ मत चाहोदर्द बढ़ेगाऊबो और उदास रहो।आगे पीछेएक अनिश्चयएक अनीहा, एक वहमटूट बिखरने वाले मन केलिए व्यर्थ है कोई क्रमचक्राकार अंगार उगलतेपथरीले आकाश तलेकुछ मत चाहो दर्द बढ़ेगाऊबो औरउदास रहोयह अनुर्वरा पितृभूमि हैधूपझलकती है पानीखोज रही खोखलीसीपियों मेंचाँदी हर नादानी।ये जन्मांध दिशाएँ देंआवाज़तुम्हें इससे पहलेरहने दोविदेह ये सपनेबुझी व्यथा को आग न दोतम के मरुस्थल में तुममणि से अपनीयों अलगाएजैसे आग लगे आँगन मेंबच्चा सोया रह जाएअब जब अनस्तित्व की दूरीनाप चुकीं असफलताएँयही विसर्जन कर दोयह क्षणगहरे डूबो साँस न लोकुछ मत चाहोदर्द बढ़ेगाऊबो औरउदास रहो
कलकत्ता के एक ट्राम में मधुबनी पेंटिंग।ज्ञानेन्द्रपतिअपनी कटोरियों के रंग उँड़ेलतेशहर आए हैं ये गाँव के फूलधीर पदों से शहर आई हैसुदूर मिथिला की सिया सुकुमारीहाथ वाटिका में सखियों संग गूँथावरमालजानकी !पहचान गया तुम्हें मेंयहाँ इस दस बजे की भभक:भीड़ मेंअपनी बाँहें अपनी जेबें सँभालतापहचान गया तुम्हें मैं कि जैसे मेरे गाँव की बिटियाआँगन  से निकलपार कर नदी-नगरआई इस महानगर मेंरोज़ी -रोटी के महासमर में 
घर में वापसी । धूमिलमेरे घर में पाँच जोड़ी आँखें हैंमाँ की आँखें पड़ाव से पहले हीतीर्थ-यात्रा की बस केदो पंचर पहिए हैं।पिता की आँखें—लोहसाँय की ठंडी सलाख़ें हैंबेटी की आँखें मंदिर में दीवट परजलते घी केदो दिए हैं।पत्नी की आँखें आँखें नहींहाथ हैं, जो मुझे थामे हुए हैंवैसे हम स्वजन हैं, क़रीब हैंबीच की दीवार के दोनों ओरक्योंकि हम पेशेवर ग़रीब हैं।रिश्ते हैं; लेकिन खुलते नहीं हैंऔर हम अपने ख़ून में इतना भी लोहानहीं पाते,कि हम उससे एक ताली बनवातेऔर भाषा के भुन्ना-सी ताले को खोलतेरिश्तों को सोचते हुएआपस में प्यार से बोलते,कहते कि ये पिता हैं,यह प्यारी माँ है, यह मेरी बेटी हैपत्नी को थोड़ा अलगकरते - तू मेरीहमसफ़र है,हम थोड़ा जोखिम उठातेदीवार पर हाथ रखते और कहतेयह मेरा घर है।
Ramz | Jaun Elia

Ramz | Jaun Elia

2025-11-0801:43

रम्ज़ । जौन एलियातुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझेमेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहींमेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हेंमेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहींइन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ परइन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहनमुज़्दा-ए-इशरत-ए-अंजाम नहीं पा सकताज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता
बात करनी मुझे मुश्किल । बहादुर शाह ज़फ़रबात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थीजैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थीले गया छीन के कौन आज तिरा सब्र ओ क़रारबे-क़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थीउस की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादूकि तबीअ'त मिरी माइल कभी ऐसी तो न थीअब की जो राह-ए-मोहब्बत में उठाई तकलीफ़सख़्त होती हमें मंज़िल कभी ऐसी तो न थीचश्म-ए-क़ातिल मिरी दुश्मन थी हमेशा लेकिनजैसी अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थीक्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बारख़ू तिरी हूर-शमाइल कभी ऐसी तो न थी
बहुत दूर का एक गाँव | धीरज कोई भी बहुत दूर का एक गाँव एक भूरा पहाड़बच्चा भूरा और बूढ़ा पहाड़साँझ को लौटती भेड़और दूर से लौटती शामरात से पहले का नीला पहाड़था वही भूरा पहाड़।भूरा बच्चा,भूरा नहीं,नीला पहाड़, गोद में लिए, आँखों से।उतर आता है शहरएक बाज़ार में थैला बिछाए,बीच में रख देता है, नीला पहाड़।और बेचने के बाद का,बचा नीला पहाड़अगली सुबहजाकर मिला देता है,उसी भूरे पहाड़ में।
सूअर के छौने । अनुपम सिंह बच्चे चुरा आए हैं अपना बस्तामन ही मन छुट्टी कर लिये हैंआज नहीं जाएँगे स्कूल झूठ-मूठ  का बस्ता खोजते बच्चे  मन ही मन नवजात बछड़े-साकुलाँच रहे हैंउनकी आँखों ने देख लिया हैआश्चर्य का नया लोकबच्चे टकटकी लगाएआँखों में भर रहे हैंअबूझ सौन्दर्यसूअरी ने जने हैंगेहुँअन रंग के सात छौनेये छौने उनकी कल्पना केनए पैमाने हैंसूर्य देवता का रथ खींचतेसात घोड़े हैंआज दिन-भर सवार रहेंगे बच्चेअपने इस रथ पर।
माँ नहीं थी वह । विश्वनाथ प्रसाद तिवारीमाँ नहीं थी वहआँगन थीद्वार थी किवाड़ थी, चूल्हा थीआग थीनल की धार थी। 
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