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Premchand Ki Lokpriy Kahaaniyaan
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Premchand Ki Lokpriy Kahaaniyaan

Author: Surbhi Kansal

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Description

अमर कथाकार मुन्शी प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य जगत के ऐसे जगमगाते नक्षत्र हैं जिनकी रोशनी में साहित्य प्रेमियों को आम भारतीय जीवन का सच्चा दर्शन प्राप्त होता है।

46 Episodes
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For msg plz follow on Instagramhttps://www.instagram.com/surbhi.kansal.81/profilecard/?igsh=MWZweDhybnlibDBxbw== https://www.instagram.com/surbhi.kansal.81/profilecard/?igsh=MWZweDhybnlibDBxbw==रमा सारी दुनिया के सामने जलील बन सकता था, किन्तु पिता के सामने जलील बनना उसके लिए मौत से कम न था। जिस आदमी ने अपने जीवन में कभी हराम का एक पैसा न छुआ हो, जिसे किसी से उधार लेकर भोजन करने के बदले भूखों सो रहना मंजूर हो, उसका लड़का इतना बेशर्म और बेगैरत हो! रमा पिता की आत्मा का यह घोर अपमान न कर सकता था।
For msg plz follow on Instagramhttps://www.instagram.com/surbhi.kansal.81/profilecard/?igsh=MWZweDhybnlibDBxbw== https://www.instagram.com/surbhi.kansal.81/profilecard/?igsh=MWZweDhybnlibDBxbw== रमा इतना निस्तेज हो गया कि जालपा पर बिगड़ने की भी शक्ति उसमें न रही। रूआंसा होकर नीचे चला गया और स्थित पर विचार करने लगा। जालपा पर बिगड़ना अन्याय था। जब रमा ने साफ कह दिया कि ये रूपये रतन के हैं, और इसका संकेत तक न किया कि मुझसे पूछे बगैर रतन को रूपये मत देना, तो जालपा का कोई अपराध नहीं। उसने सोचा,इस समय झिल्लाने और बिगड़ने से समस्या हल न होगी। शांत होकर विचार करने की आवश्यकता थी। रतन से रूपये वापस लेना अनिवार्य था।
For msg plz follow on Instagramhttps://www.instagram.com/surbhi.kansal.81/profilecard/?igsh=MWZweDhybnlibDBxbw== https://www.instagram.com/surbhi.kansal.81/profilecard/?igsh=MWZweDhybnlibDBxbw== रमा दिल में कांप रहा था, कहीं जालपा यह प्रश्न न कर बैठे। आकर उसने यह प्रश्न पूछ ही लिया। उस वक्त भी यदि रमा ने साहस करके सच्ची बात स्वीकार कर ली होती तो शायद उसके संकटों का अंत हो जाता।
For msg plz follow on Instagramhttps://www.instagram.com/surbhi.kansal.81/profilecard/?igsh=MWZweDhybnlibDBxbw== https://www.instagram.com/surbhi.kansal.81/profilecard/?igsh=MWZweDhybnlibDBxbw== दस ही पांच दिन में जालपा ने नए महिला-समाज में अपना रंग जमा लिया। उसने इस समाज में इस तरह प्रवेश किया, जैसे कोई कुशल वक्ता पहली बार परिषद के मंच पर आता है। विद्वान लोग उसकी उपेक्षा करने की इच्छा होने पर भी उसकी प्रतीभा के सामने सिर झुका देते हैं।
For msg plz follow on Instagramhttps://www.instagram.com/surbhi.kansal.81/profilecard/?igsh=MWZweDhybnlibDBxbw== https://www.instagram.com/surbhi.kansal.81/profilecard/?igsh=MWZweDhybnlibDBxbw== जालपा दोनों आभूषणों को देखकर निहाल हो गई। ह्रदय में आनंद की लहर-सी उठने लगीं। वह मनोभावों को छिपाना चाहती थी कि रमा उसे ओछी न समझे । लेकिन एक-एक अंग खिल जाता था। मुस्कराती हुई आंखें, दिमकते हुए कपोल और खिले हुए अधर उसका भरम गंवाए देते थे।
जालपा अब अपने कृत्रिम संयम को न निभा सकी। अलमारी में से आभूषणों का सूची-पत्र निकालकर रमा को दिखाने लगी। इस समय वह इतनी तत्पर थी, मानो सोना लाकर रक्खा हुआ है, सुनार बैठा हुआ है, केवल डिज़ाइन ही पसंद करना बाकी है। उसने सूची के दो डिज़ाइन पसंद किए। दोनों वास्तव में बहुत ही सुंदर थे। पर रमा उनका मूल्य देखकर सन्नाट में आ गया।
जालपा रूंधे हुए स्वर में बोली--कारण यही है कि अम्मांजी इसे खुशी से नहीं दे रही हैं, बहुत संभव है कि इसे भेजते समय वह रोई भी हों और इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि इसे वापस पाकर उन्हें सच्चा आनंद होगा।
महीने-भर से ऊपर हो गया। उसकी दशा ज्यों-की-त्यों है। न कुछ खाती-पीती है, न किसी से हंसती- बोलती है। खाट पर पड़ी हुई शून्य नजरों से शून्याकाश की ओर ताकती रहती है। सारा घर समझाकर हार गया, पड़ोसिने समझाकर हार गई, दीनदयाल आकर समझा गए, पर जालपा ने रोग- शय्या न छोड़ी।
रमानाथ का कलेजा मसोस उठा। यह चन्द्रहार के लिए इतनी विकल हो रही है। इसे क्या मालूम कि दुर्भाग्य इसका सर्वस्व सलूटने का सामान कर रहा है। जिस सरल बालिका पर उसे अपने प्राणों को न्योछावर करना चाहिए था, उसी का सवर्चस्व अपहरण करने पर वह तुला हुआ है! वह इतना व्यग्र हुआ, कि जी में आया, कोठे से कूदकर प्राणों का अंत कर दे।
बालिका के आनंद की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनंद न होता। उसे पहनकर वह सारे गांव में नाचती फिरी। उसके पास जो बाल-संपित्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था। लडकी का नाम जालपा था, माता का मानकी।
रमा ने बड़े संकोच के साथ कहा, ‘विश्वास मानिए, मैं बिलकुल खाली हाथ हूँ। मैं तो आपसे रुपये माँगने आया था। मुझे बड़ी सख्त जरूरत है। वह रुपये मुझे दे दीजिए, मैं आपके लिए कोई अच्छा-सा हार यहीं से ला दूँगा। मुझे विश्वास है, ऐसा हार सात-आठ सौ में मिल जाएगा।’”
निर्मला बड़ी मधुर-भाषणी स्त्री थी, पर अब उसकी गणना कर्कशाओ में की जा सकती थी। दिन भर उसके मुख से जली-कटी बातें निकला करती थी। उसके शब्दों की कोमलता न जाने क्या हो गई! भावों में माधुयर्म का कही नाम नही। भूंगी बहुत दिनों से इस घर मे नौकर थी। स्वभाव की सहनशील थी, पर यह आठों पहर की बकबक उससे भी न सकी गई। एक दिन उसने भी घर की राह ली। यहां तक कि जिस बच्ची को प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी, उसकी सूरत से भी घृणा हो गई। बात- बात पर घुड़क पड़ती, कभी-कभी मार बैठती। रुक्मणी रोई हुई बालिका को गोद में बैठा लेती और चुमकार- दुलार कर चुप कराती। उस अनाथ के लिए अब यही एक आश्रय रह गया था।
दोपहर हो गयी, पर आज भी चूल्हा नही जला। खाना भी जीवन का काम है, इसकी किसी को सुध ही नही। मुंशीजी बाहर बेजान-से पड़े थे और निर्मला भीतर थी। बच्ची कभी भीतर जाती, कभी बाहर। कोई उससे बोलने वाला न था। बार-बार सियारिाम के कमरे के द्वार पर जाकर खड़ी होती और ‘बैया-बैया’ पुकारती, पर ‘बैया’ कोई जवाब न देता था
अगर निर्मला के सन्दूक में पैसे न फलते थे, तो इस सन्दूकचे में शायद इसके फूल भी न लगते हों, लेकिन संयोग ही कहिए कि कागजों को झाडते हुए एक चवन्नी गिर पड़ी। मारे हर्ष के मुंशीजी उछल पड़े। बड़ी-बड़ी रकमें इसके पहले कमा चुके थे, पर यह चवन्नी पाकर इस समय उन्हें जितना आह्लाद हुआ, उतना शायद पहले कभी नहीं हुआ।
सियाराम का मन बाबाजी के दशर्न के लिए व्याकुल हो उठा। उसने सोचा- इस वक्त वह कहां मिलेंगे? कहां चलकर देखूं? उनकी मनोहर वाणी, उनकी उत्साहप्रद सान्त्वना, उसके मन को खीचने लगी। उसने आतुर होकर कहा- मैं उनके साथ ही क्यों न चला गया? घर पर मेरे लिए क्या रखा था?
निर्मला का स्वभाव बिलकुल बदल गया है। वह एक-एक कौड़ी दांत से पकड़ने लगी है। सियारिाम रोते-रोते चाहे जान दे दे, मगर उसे मिठाई के लिए पैसे नही मिलते और यह बर्ताव कुछ सियाराम ही के साथ नही है, निर्मला स्वयं अपनी जरुरतों को टालती रहती है। धोती जब तक फटकर तार-तार न हो जाए, नयी धोती नही आती। महीनों सिर का तेल नही मंगाया जाता। पान खाने का उसे शौक था, कई-कई दिन तक पानदान खाली पड़ा रहता है, यहां तक कि बच्ची के लिए दूध भी नही आता। नन्हे से शिशु का भविष्य विराट् रुप धारण करके उसके विचार-क्षेत्र पर मंडराता रहता ।
निर्मला तो सन्नाटे में आ गयी। मालूम हुआ, किसी ने उसकी देह पर अंगारे डाल दिये। मुंशजी ने डांटकर जियाराम को चुप करना चाहा, जियाराम नि: शंक खड़ा ईट का जवाब पत्थर से देता रहा। यहां तक कि निर्मला को भी उस पर क्रोध आ गया। यह कल का छोकरा किसी काम का न काज का, यो खड़ा टर्रा रहा है, जैसे घर भर का पर पालन-पोषण यही करता हो। त्योंरियां चढ़ाकर बोली- बस, अब बहुत हुआ जियाराम, मालूम हो गया, तुम बड़े लायक हो, बाहर जाकर बैठो।
मंसाराम क्या मरा ! मानों समाज को उन पर आवाजें कसने का बहाना मिल गया। भीतर की बातें कौन जाने, प्रत्यक्ष बात यह थी कि यह सब सौतेली मां की करतूत है चारो तरफ यही चर्चा थी, ईश्वरि न करे लड़कों को सौतेली मां से पाला पड़े। जिसे अपना बना-बनाया घर उजाड़ना हो, अपने प्यारे बच्चों की गदर्न पर छुरी फेरनी हो, वह बच्चों के रहते हुए अपना दूसरा ब्याह करे।
सबेरा हुआ तो सोहन की दशा और भी खराब हो गई। उसकी नाक बहने लगी औरि बुखार और भी तेज हो गया। आंखें चढ़ गइं और सिर झुक गया। न वह हाथ-पैर हिलाता था, न हंसता-बोलता था, बस, चुपचाप पड़ा था। ऐसा मालूम होता था कि उसे इस वक्त किसी का बोलना अच्छा नही लगता। कुछ-कुछ खासी सी भी आने लगी। अब तो सुधा घबराई।
निर्मला ने सुधा की ओर स्नेह, ममता, विनोद कृत्रिम तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा- अच्छा, तो तुम्ही अब तक मेरे साथ यह त्रिया-चरित्र खेल रही थी! मैं जानती, तो तुम्हें यहां बुलाती ही नही।
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