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जानो और जागो ! (अष्‍टावक्र : महागीता - 65)

जानो और जागो ! (अष्‍टावक्र : महागीता - 65)

Update: 2022-03-14
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Description

अप्रयत्नात्‌ प्रयत्नाद्वा मूढ़ो नाप्नोति निर्वृतिम्‌।

तत्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृतः।। 210।।

शुद्धं बुद्धं प्रियं पूर्णं निष्प्रपंचं निरामयम्‌।

आत्मानं तं न जानन्ति तत्राभ्यासपरा जनाः।। 211।।

नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विम़ूढोऽभ्यासरूपिणा।

धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः।। 212।।

मूढ़ो नाप्नोति तद्ब्‌रह्म यतो भवितुमिच्छति।

अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्मस्वरूपभाक्‌।। 213।।

निराधारा ग्रहव्यग्रा मूढ़ाः संसारपोषकाः।

एतस्यानर्थमूलस्य मूलच्छेदः कृतो बुधैः।। 214।।

न शांतिं लभते मूढ़ो यतः शमितुमिच्छति।

धीरस्तत्वं विनिश्चित्य सर्वदा शांतमानसः।। 215।।


पहला सूत्र:


अप्रयत्नात्‌ प्रयत्नाद्वा मूढो नाप्नोति निर्वृतिम्‌।

तत्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृतः।।


अष्टावक्र  ने कहा, ‘अज्ञानी पुरुष प्रयत्न अथवा अप्रयत्न से सुख को प्राप्त नहीं  होता है। और ज्ञानी पुरुष केवल तत्व को निश्चयपूर्वक जानकर सुखी हो जाता  है।’

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