सूर्य और सपने।चंपा वैदसूर्य अस्त हो रहा हैपहली बारइस मंज़िल परखड़ी वह देखती हैबादलों कोजो टकटकी लगादेखते हैंसूर्य के गोले कोयह गोला आगलगा जाता है उसके अंदरकह जाता हैकल फिर आऊँगापूछूँगा क्या सपने देखे?
क्या हम सब कुछ जानते हैं । कुँवर नारायणक्या हम सब कुछ जानते हैंएक-दूसरे के बारे मेंक्या कुछ भी छिपा नहीं होता हमारे बीचकुछ घृणित या मूल्यवानजिन्हें शब्द व्यक्त नहीं कर पातेजो एक अकथ वेदना में जीता और मरता हैजो शब्दित होता बहुत बादजब हम नहीं होतेएक-दूसरे के सामनेऔर एक की अनुपस्थिति विकल उठती हैदूसरे के लिए।जिसे जिया उसे सोचता हूँजिसे सोचा उसे दोहराता हूँइस तरह अस्तित्व में आता पुनःजो विस्मृति में चला गया थाजिसकी अवधि अधिक से अधिकसौ साल है।एक शिला-खंड परदो तिथियाँबीच की यशगाथाएँहमारी सामूहिक स्मृतियों मेंसंचित हैं।कभी-कभी मिल जाती हैंइस संचय मेंव्यक्ति की आकांक्षाएँऔर विवशताएँतब जी उठता हैदो तिथियों के बीच का वृत्तांत।
निःशब्द भाषा में। नवीन सागरकुछ न कुछ चाहता है बच्चाबनानाएक शब्द बनाना चाहता है बच्चानयाशब्द वह बना रहा होता है किउसके शब्द को हिला देती है भाषाबच्चा निःशब्दभाषा में चला जाता हैक्या उसे याद आएगा शब्दस्मृति में हिलाजब वह रंगमंच पर जाएगाबरसों बादभाषा में ढूँढ़ता अपना सचकौंधेगा वह क्या एक बार!बनाएगा कुछ याचला जाएगा बना-बनायादीर्घ नेपथ्य मेंबच्चाकि जो चाहता हैबनानाअभी कुछ न कुछ।
बेचैन चील। गजानन माधव मुक्तिबोधबेचैन चील!!उस-जैसा मैं पर्यटनशीलप्यासा-प्यासा,देखता रहूँगा एक दमकती हुई झीलया पानी का कोरा झाँसाजिसकी सफ़ेद चिलचिलाहटों में है अजीबइनकार एक सूना!!
मतलब है | पराग पावनमतलब है सब कुछ पा लेने की लहुलुहान कोशिशों का थकी हुई प्रतिभाओं और उपलब्धियों के लिए तुम्हारी उदासीनता का गहरा मतलब है जिस पृथ्वी पर एक दूब के उगने के हज़ार कारण हों तुम्हें लगता है तुम्हारी इच्छाएँ यूँ ही मर गईं एक रोज़मर्रा की दुर्घटना में
लयताल।कैलाश वाजपेयीकुछ मत चाहोदर्द बढ़ेगाऊबो और उदास रहो।आगे पीछेएक अनिश्चयएक अनीहा, एक वहमटूट बिखरने वाले मन केलिए व्यर्थ है कोई क्रमचक्राकार अंगार उगलतेपथरीले आकाश तलेकुछ मत चाहो दर्द बढ़ेगाऊबो औरउदास रहोयह अनुर्वरा पितृभूमि हैधूपझलकती है पानीखोज रही खोखलीसीपियों मेंचाँदी हर नादानी।ये जन्मांध दिशाएँ देंआवाज़तुम्हें इससे पहलेरहने दोविदेह ये सपनेबुझी व्यथा को आग न दोतम के मरुस्थल में तुममणि से अपनीयों अलगाएजैसे आग लगे आँगन मेंबच्चा सोया रह जाएअब जब अनस्तित्व की दूरीनाप चुकीं असफलताएँयही विसर्जन कर दोयह क्षणगहरे डूबो साँस न लोकुछ मत चाहोदर्द बढ़ेगाऊबो औरउदास रहो
कलकत्ता के एक ट्राम में मधुबनी पेंटिंग।ज्ञानेन्द्रपतिअपनी कटोरियों के रंग उँड़ेलतेशहर आए हैं ये गाँव के फूलधीर पदों से शहर आई हैसुदूर मिथिला की सिया सुकुमारीहाथ वाटिका में सखियों संग गूँथावरमालजानकी !पहचान गया तुम्हें मेंयहाँ इस दस बजे की भभक:भीड़ मेंअपनी बाँहें अपनी जेबें सँभालतापहचान गया तुम्हें मैं कि जैसे मेरे गाँव की बिटियाआँगन से निकलपार कर नदी-नगरआई इस महानगर मेंरोज़ी -रोटी के महासमर में
घर में वापसी । धूमिलमेरे घर में पाँच जोड़ी आँखें हैंमाँ की आँखें पड़ाव से पहले हीतीर्थ-यात्रा की बस केदो पंचर पहिए हैं।पिता की आँखें—लोहसाँय की ठंडी सलाख़ें हैंबेटी की आँखें मंदिर में दीवट परजलते घी केदो दिए हैं।पत्नी की आँखें आँखें नहींहाथ हैं, जो मुझे थामे हुए हैंवैसे हम स्वजन हैं, क़रीब हैंबीच की दीवार के दोनों ओरक्योंकि हम पेशेवर ग़रीब हैं।रिश्ते हैं; लेकिन खुलते नहीं हैंऔर हम अपने ख़ून में इतना भी लोहानहीं पाते,कि हम उससे एक ताली बनवातेऔर भाषा के भुन्ना-सी ताले को खोलतेरिश्तों को सोचते हुएआपस में प्यार से बोलते,कहते कि ये पिता हैं,यह प्यारी माँ है, यह मेरी बेटी हैपत्नी को थोड़ा अलगकरते - तू मेरीहमसफ़र है,हम थोड़ा जोखिम उठातेदीवार पर हाथ रखते और कहतेयह मेरा घर है।
रम्ज़ । जौन एलियातुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझेमेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहींमेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हेंमेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहींइन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ परइन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहनमुज़्दा-ए-इशरत-ए-अंजाम नहीं पा सकताज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता
बात करनी मुझे मुश्किल । बहादुर शाह ज़फ़रबात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थीजैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थीले गया छीन के कौन आज तिरा सब्र ओ क़रारबे-क़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थीउस की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादूकि तबीअ'त मिरी माइल कभी ऐसी तो न थीअब की जो राह-ए-मोहब्बत में उठाई तकलीफ़सख़्त होती हमें मंज़िल कभी ऐसी तो न थीचश्म-ए-क़ातिल मिरी दुश्मन थी हमेशा लेकिनजैसी अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थीक्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बारख़ू तिरी हूर-शमाइल कभी ऐसी तो न थी
बहुत दूर का एक गाँव | धीरज कोई भी बहुत दूर का एक गाँव एक भूरा पहाड़बच्चा भूरा और बूढ़ा पहाड़साँझ को लौटती भेड़और दूर से लौटती शामरात से पहले का नीला पहाड़था वही भूरा पहाड़।भूरा बच्चा,भूरा नहीं,नीला पहाड़, गोद में लिए, आँखों से।उतर आता है शहरएक बाज़ार में थैला बिछाए,बीच में रख देता है, नीला पहाड़।और बेचने के बाद का,बचा नीला पहाड़अगली सुबहजाकर मिला देता है,उसी भूरे पहाड़ में।
सूअर के छौने । अनुपम सिंह बच्चे चुरा आए हैं अपना बस्तामन ही मन छुट्टी कर लिये हैंआज नहीं जाएँगे स्कूल झूठ-मूठ का बस्ता खोजते बच्चे मन ही मन नवजात बछड़े-साकुलाँच रहे हैंउनकी आँखों ने देख लिया हैआश्चर्य का नया लोकबच्चे टकटकी लगाएआँखों में भर रहे हैंअबूझ सौन्दर्यसूअरी ने जने हैंगेहुँअन रंग के सात छौनेये छौने उनकी कल्पना केनए पैमाने हैंसूर्य देवता का रथ खींचतेसात घोड़े हैंआज दिन-भर सवार रहेंगे बच्चेअपने इस रथ पर।
माँ नहीं थी वह । विश्वनाथ प्रसाद तिवारीमाँ नहीं थी वहआँगन थीद्वार थी किवाड़ थी, चूल्हा थीआग थीनल की धार थी।
उलाहना।अज्ञेयनहीं, नहीं, नहीं!मैंने तुम्हें आँखों की ओट कियापर क्या भुलाने को?मैंने अपने दर्द को सहलायापर क्या उसे सुलाने को?मेरा हर मर्माहत उलाहनासाक्षी हुआ कि मैंने अंत तक तुम्हें पुकारा!ओ मेरे प्यार! मैंने तुम्हें बार-बार, बार-बार असीसातो यों नहीं कि मैंने बिछोह को कभी भी स्वीकारा।नहीं, नहीं, नहीं!
पनसोखा है इन्द्रधनुष - मदन कश्यप पनसोखा है इन्द्रधनुषआसमान के नीले टाट पर मखमली पैबन्द की तरह फैला है। कहीं यह तुम्हारा वही सतरंगा दुपट्टा तो नहीं जो कुछ ऐसे ही गिर पड़ा था मेरे अधलेटे बदन पर तेज़ साँसों से फूल-फूल जा रहे थे तुम्हारे नथने लाल मिर्च से दहकते होंठ धीरे-धीरे बढ़ रहे थे मेरी ओर एक मादा गेहूँअन फुंफकार रही थी क़रीब आता एक डरावना आकर्षण था मेरी आत्मा खिंचती चली जा रही थी जिसकी ओर मृत्यु की वेदना से ज़्यादा बड़ी होती है जीवन की वेदनादुपट्टे ने क्या मुझे वैसे ही लपेट लिया था जैसे आसमान को लपेट रखा है। पनसोखा है इन्द्रधनुष बारिश रुकने पर उगा है या बारिश रोकने के लिए उगा हैबारिश को थम जाने दो बारिश को थम जाना चाहिएप्यार को नहीं थमना चाहिएक्या तुम वही थीं जो कुछ देर पहले आयी थीं इस मिलेनियम पार्क मेंसीने से आईपैड चिपकाए हुएवैसे किस मिलेनियम से आयी थीं तुम प्यार के बाद कोई वही कहाँ रह जाता है जो वह होता हैधीरे-धीरे धीमी होती गयी थी तुम्हारी आवाज़ क्रियाओं ने ले ली थी मनुहारों की जगह ईश्वर मंदिर से निकलकर टहलने लगा था पार्क मेंधीरे-धीरे ही मुझे लगा थातुम्हारी साँसों से बड़ा कोई संगीत नहीं तुम्हारी चुप्पी से मुखर कोई संवाद नहीं तुम्हारी विस्मृति से बेहतर कोई स्मृति नहीं पनसोखा है इन्द्रधनुषजिस प्रक्रिया से किरणें बदलती हैं सात रंगों में उसी प्रक्रिया से रंगहीन किरणों से बदल जाते हैं सातों रंगहोंठ मेरे होंठों के बहुत क़रीब आयेमैंने दो पहाड़ों के बीच की सूखी नदी में छिपा लिया अपना सिरबादल हमें बचा रहे थे सूरज के ताप से पाँवों के नीचे नर्म घासों के कुचलने का एहसास हमें था दुनिया को समझ लेना चाहिए थाहम मांस के लोथड़े नहीं प्यार करने वाले दो ज़िंदा लोग थे महज़ चुम्बन और स्पर्श नहीं था हमारा प्यार वह कुछ उपक्रमों और क्रियाओं से हो सम्पन्न नहीं होता थाहम इन्द्रधनुष थे लेकिन पनसोखे नहीं अपनी-अपनी देह के भीतर ढूँढ़ रहे थे अपनी-अपनी देह बारिश की बूँदें जितनी हमारे बदन पर थीं उससे कहीं अधिक हमारी आत्मा मेंजिस नैपकिन से पोंछा था तुमने अपना चेहरा मैंने उसे कूड़ेदान में नहीं डाला था दहकते अंगारे से तुम्हारे निचले होंठ पर तब भी बची रह गयी थी एक मोटी-सी बूँद मैं उसे अपनी तर्जनी पर उठा लेना चाहता था पर निहारता ही रह गया अब कविता में उसे छूना चाह रहा हूँ तो अँगुली जल रही है।
बुद्धू।शंख घोषमूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्लकोई हो जाये यदि बुद्धू अकस्मात, यह तोवह जान नहीं पाएगा खुद से। जान यदि पाता यहफिर तो वह कहलाता बुद्धिमान ही।तो फिर तुम बुद्धू नहीं हो यह तुमनेकैसे है लिया जान?
मेरी ख़ता । अमृता प्रीतमअनुवाद : अमिया कुँवरजाने किन रास्तों से होतीऔर कब की चलीमैं उन रास्तों पर पहुँचीजहाँ फूलों लदे पेड़ थेऔर इतनी महक थी—कि साँसों से भी महक आती थीअचानक दरख़्तों के दरमियानएक सरोवर देखाजिसका नीला और शफ़्फ़ाफ़ पानीदूर तक दिखता था—मैं किनारे पर खड़ी थी तो दिल कियासरोवर में नहा लूँमन भर कर नहाईऔर किनारे पर खड़ीजिस्म सुखा रही थीकि एक आसमानी आवाज़ आईयह शिव जी का सरोवर है...सिर से पाँव तक एक कँपकँपी आईहाय अल्लाह! यह तो मेरी ख़तामेरा गुनाह—कि मैं शिव के सरोवर में नहाईयह तो शिव का आरक्षित सरोवर हैसिर्फ़... उनके लिएऔर फिर वही आवाज़ थीकहने लगी—कि पाप-पुण्य तो बहुत पीछे रह गएतुम बहूत दूर पहुँचकर आई होएक ठौर बँधी और देखाकिरनों ने एक झुरमुट-सा डालाऔर सरोवर का पानी झिलमिलायालगा—जैसे मेरी ख़ता परशिव जी मुस्करा रहे...
पुरानी बातें | श्रद्धा उपाध्याय पहले सिर्फ़ पुरानी बातें पुरानी लगती थीं अब नई बातें भी पुरानी हो गई हैं मैंने सिरके में डाल दिए हैं कॉलेज के कई दिन बचपन की यादें लगता था सड़ जाएँगी फिर किताबों के बीच रखी रखी सूख गईं कितनी तरह की प्रेम कहानियाँ उन पर नमक घिस कर धूप दिखा दी है ज़रुरत होगी तो तल कर परोस दी जाएँगीऔर इतना कुछ फ़िसल हुआ हाथों से क्योंकि नहीं आता था उन्हें कोई हुनर
ख़ाली मकान।मोहम्मद अल्वीजाले तने हुए हैं घर में कोई नहीं''कोई नहीं'' इक इक कोना चिल्लाता हैदीवारें उठ कर कहती हैं ''कोई नहीं''''कोई नहीं'' दरवाज़ा शोर मचाता हैकोई नहीं इस घर में कोई नहीं लेकिनकोई मुझे इस घर में रोज़ बुलाता हैरोज़ यहाँ मैं आता हूँ हर रोज़ कोईमेरे कान में चुपके से कह जाता है''कोई नहीं इस घर में कोई नहीं पगलेकिस से मिलने रोज़ यहाँ तू आता है''
कहाँ तक वक़्त के दरिया को । शहरयारकहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखेंये हसरत है कि इन आँखों से कुछ होता हुआ देखेंबहुत मुद्दत हुई ये आरज़ू करते हुए हम कोकभी मंज़र कहीं हम कोई अन-देखा हुआ देखेंसुकूत-ए-शाम से पहले की मंज़िल सख़्त होती हैकहो लोगों से सूरज को न यूँ ढलता हुआ देखेंहवाएँ बादबाँ खोलीं लहू-आसार बारिश होज़मीन-ए-सख़्त तुझ को फूलता-फलता हुआ देखेंधुएँ के बादलों में छुप गए उजले मकाँ सारेये चाहा था कि मंज़र शहर का बदला हुआ देखेंहमारी बे-हिसी पे रोने वाला भी नहीं कोईचलो जल्दी चलो फिर शहर को जलता हुआ देखें