उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु । गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा।[5] रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया। वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है। कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा। वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा ॥ चारो वेद के करे खंडौती । जन रैदास करे दंडौती।। उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है- कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै। तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै॥ उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है। रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वतः उनके अनुयायी बन जाते थे। उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं। वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की। सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की ॥ आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। रैदास के ४० पद गुरु ग्रन्थ साहब में मिलते हैं जिसका सम्पादन गुरु अर्जुन साहिब ने १६ वीं सदी में किया था ।
वृन्दावनलाल वर्मा हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है। इतिहास, कला, पुरातत्व, मनोविज्ञान, मूर्तिकला और चित्रकला में भी इनकी विशेष रुचि रही। 'अपनी कहानी' में आपने अपने संघर्षमय जीवन की गाथा कही है। वृंदावनलाल वर्मा का जन्म ९ जनवरी १८८९ ई० को उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले के मऊरानीपुर के ठेठ रूढिवादी कायस्थ परिवार में हुआ था। पिता का नाम अयोध्या प्रसाद था। प्रारम्भिक शिक्षा भिन्न-भिन्न स्थानों पर हुई। बी.ए. पास करने के बाद इन्होंने कानून की परीक्षा पास की और झाँसी में वकालत करने लगे। १९०९ ई० में 'सेनापति ऊदल' नामक नाटक छपा जिसे तत्कालीन सरकार ने जब्त कर लिया। १९२० ई० तक छोटी छोटी कहानियाँ लिखते रहे।१९२७ ई० में 'गढ़ कुण्डार' दो महीने में लिखा। १९३० ई० में 'विराटा की पद्मिनी' लिखा। विक्टोरिया कालेज ग्वालियर से स्नातक तक की पढाई करने के लिये ये आगरा आये और आगरा कालेज से कानून की पढाई पूरी करने के बाद बुन्देलखंड (झांसी) में वकालत करने लगे। इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये उन्नीस साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति ऊदल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि गद्य रचनायें लिखी हैं साथ ही कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं। वृंदावनलाल वर्मा ऐतिहासिक कहानीकार एवं लेखक के रूप में प्रसिद्ध हैं। बुन्देलखंड का मध्यकालीन इतिहास इनके कथा का मुख्य आधार है। घटना की विचित्रता, प्रकृति-चित्रण और मानव-प्रकृति के ये सफल चितेरे थे। पौराणिक तथा ऐतिहासिक कथाओं के प्रति बचपन से ही इनकी रुचि थी। अपनी साहित्यिक सेवाओं के लिए वृंदावनलाल वर्मा को आगरा विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट्. की उपाधि से सम्मानित किया गया।
सर मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरय्या भारत के महान अभियन्ता एवं राजनयिक थे। उन्हें सन 1955 में भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से विभूषित किया गया था।[1] भारत में उनका जन्मदिन अभियन्ता दिवस के रूप में मनाया जाता है। विश्वेश्वरैया का जन्म मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुक में 15 सितंबर 1860 को एक तेलुगु परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री तथा माता का नाम वेंकाचम्मा था। पिता संस्कृत के विद्वान थे। विश्वेश्वरैया ने प्रारंभिक शिक्षा जन्मस्थान से ही पूरी की। आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने बंगलूर के सेंट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया। लेकिन यहां उनके पास धन का अभाव था। अत: उन्हें टयूशन करना पड़ा। विश्वेश्वरैया ने 1880 में बीए की परीक्षा में अव्वल स्थान प्राप्त किया। इसके बाद मैसूर सरकार की मदद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया। 1883 की एलसीई व एफसीई (वर्तमान समय की बीई उपाधि) की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करके अपनी योग्यता का परिचय दिया। इसी उपलब्धि के चलते महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें नासिक में सहायक अभियंता के पद पर नियुक्त किया। एक बार कुछ भारतीयों को अमेरिका में कुछ फैक्टरियों की कार्यप्रणाली देखने के लिए भेजा गया। फैक्टरी के एक ऑफीसर ने एक विशेष मशीन की तरफ इशारा करते हुए कहा, "अगर आप इस मशीन के बारे में जानना चाहते हैं, तो आपको इसे 75 फुट ऊंची सीढ़ी पर चढ़कर देखना होगा"। भारतीयों का प्रतिनिधित्व कर रहे सबसे उम्रदराज व्यक्ति ने कहा, "ठीक है, हम अभी चढ़ते हैं"। यह कहकर वह व्यक्ति तेजी से सीढ़ी पर चढ़ने के लिए आगे बढ़ा। ज्यादातर लोग सीढ़ी की ऊंचाई से डर कर पीछे हट गए तथा कुछ उस व्यक्ति के साथ हो लिए। शीघ्र ही मशीन का निरीक्षण करने के बाद वह शख्स नीचे उतर आया। केवल तीन अन्य लोगों ने ही उस कार्य को अंजाम दिया। यह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि डॉ॰ एम.विश्वेश्वरैया थे जो कि सर एमवी के नाम से भी विख्यात थे। दक्षिण भारत के मैसूर, कर्नाटक को एक विकसित एवं समृद्धशाली क्षेत्र बनाने में एमवी का अभूतपूर्व योगदान है। जब देश स्वंतत्र नहीं था, तब कृष्णराजसागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील वर्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ मैसूर समेत अन्य कई महान उपलब्धियां एमवी ने कड़े प्रयास से ही संभव हो पाई। इसीलिए इन्हें कर्नाटक का भगीरथ भी कहते हैं। जब वह केवल 34 वर्ष के थे, उन्होंने सिंधु नदी से सुक्कुर कस्बे को पानी की पूर्ति भेजने का प्लान तैयार किया जो सभी इंजीनियरों को पसंद आया। सरकार ने सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करने के उपायों को ढूंढने के लिए समिति बनाई। इसके लिए एमवी ने एक नए ब्लॉक सिस्टम को ईजाद किया। उन्होंने स्टील के दरवाजे बनाए जो कि बांध से पानी के बहाव को रोकने में मदद करता था। उनके इस सिस्टम की प्रशंसा ब्रिटिश अधिकारियों ने मुक्तकंठ से की। आज यह प्रणाली पूरे विश्व में प्रयोग में लाई जा रही है। विश्वेश्वरैया ने मूसा व इसा नामक दो नदियों के पानी को बांधने के लिए भी प्लान तैयार किए। इसके बाद उन्हें मैसूर का चीफ इंजीनियर नियुक्त किया गया। उस समय राज्य की हालत काफी बदतर थी। विश्वेश्वरैया लोगों की आधारभूत समस्याओं जैसे अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी आदि को लेकर भी चिंतित थे। फैक्टरियों का अभाव, सिंचाई के लिए वर्षा जल पर निर्भरता तथा खेती के पारंपरिक साधनों के प्रयोग के कारण समस्याएं जस की तस थीं। इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्वेश्वरैया ने इकॉनोमिक कॉन्फ्रेंस के गठन का सुझाव दिया। मैसूर के कृष्ण राजसागर बांध का निर्माण कराया। कृष्णराजसागर बांध के निर्माण के दौरान देश में सीमेंट नहीं बनता था, इसके लिए इंजीनियरों ने मोर्टार तैयार किया जो सीमेंट से ज्यादा मजबूत था। 1912 में विश्वेश्वरैया को मैसूर के महाराजा ने दीवान यानी मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया। विश्वेश्वरैया शिक्षा की महत्ता को भलीभांति समझते थे। लोगों की गरीबी व कठिनाइयों का मुख्य कारण वह अशिक्षा को मानते थे। उन्होंने अपने कार्यकाल में मैसूर राज्य में स्कूलों की संख्या को 4,500 से बढ़ाकर 10,500 कर दिया। इसके साथ ही विद्यार्थियों की संख्या भी 1,40,000 से 3,66,000 तक पहुंच गई। मैसूर में लड़कियों के लिए अलग हॉस्टल तथा पहला फर्स्ट ग्रेड कॉलेज (महारानी कॉलेज) खुलवाने का श्रेय भी विश्वेश्वरैया को ही जाता है। उन दिनों मैसूर के सभी कॉलेज मद्रास विश्वविद्यालय से संबद्ध थे। उनके ही अथक प्रयासों के चलते मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देश के सबसे पुराने विश्वविद्यालयों में से एक है। इसके अलावा उन्होंने श्रेष्ठ छात्रों को अध्ययन करने के लिए विदेश जाने हेतु छात्रवृत्ति की भी व्यवस्था की। उन
हाल के वर्षों में हुए अध्ययनों में पाया गया है कि पिछले दो दशकों में इंसानों की जीवनप्रत्याशा पहले की तुलना में कम होती जा रही है। इसके लिए स्वास्थ्य समस्याओं और पर्यावरणीय कारकों को मुख्य कारण के तौर पर देखा जा रहा है। कई तरह की तेजी से बढ़ी बीमारियों ने लोगों की उम्र को कम कर दिया है। डॉक्टर्स कहते हैं, अगर आप भी लंबी आयु चाहते हैं तो इसके लिए अभी से जीवनशैली में कुछ विशेष परिवर्तन करने की आवश्यकता है। कुछ सामान्य सी आदतों में किया गया बदलाव न सिर्फ आपको सेहतमंद बनाए रखने में मदद करेगा साथ ही यह आपको लंबी आयु प्राप्त करने में भी सहायक होगा। स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं, औसत से कम होती जा रही आयु का एक प्रमुख कारण उचित पोषण की कमी और शारीरिक निष्क्रियता को भी माना जा सकता है। वैश्विक स्तर पर प्राप्त हो रहे रिपोर्ट्स इस बात की पुष्टि करते हैं। ऐसे में कम उम्र से ही सभी लोगों को इस दिशा में काम करते रहने की आवश्यकता है।
8 मार्च, 2018 को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समग्र पोषण अभियान के लिए प्रधानमंत्री की व्यापक योजना शुरू की, जिसे राष्ट्रीय पोषण मिशन के रूप में भी जाना जाता है. सरकार का प्रमुख कार्यक्रम 6 साल से कम उम्र के बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए पोषण संबंधी परिणामों में सुधार करना है. सितंबर के महीने में प्रतिवर्ष मनाए जाने वाले पोषण अभियान का उद्देश्य मिशन मोड में कुपोषण की चुनौती का समाधान करना है. हर साल सरकार महिलाओं और बच्चों के लिए अच्छे पोषण के सामान्य लक्ष्य की दिशा में प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक थीम निर्धारित करती है. इस वर्ष, उद्देश्य “महिला और स्वास्थ्य” और “बच्चा और शिक्षा” पर मुख्य ध्यान देने के साथ ग्राम पंचायतों के माध्यम से पोषण माह को पोषण पंचायतों के रूप में शुरू करना है. अच्छे पोषण और इसकी महत्वपूर्ण भूमिका का संदेश हर नुक्कड़ तक पहुंचाने के लिए सितंबर माह में विभिन्न गतिविधियां की जाएंगी. महिला और बाल विकास मंत्रालय की आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, गहन जागरूकता और शिक्षा गतिविधियों में संवेदनशील अभियान, आउटरीच प्रोग्राम, पहचान अभियान, शिविर और मेले शामिल होंगे, जिसमें गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं, छह साल से कम उम्र के बच्चों और किशोरों पर, लड़कियों, ‘स्वस्थ भारत’ (स्वस्थ भारत) की दृष्टि को साकार करने के लिए विशेष ध्यान दिया जाएगा
Aaj suniye Chandra Pratap Tiwari ji ke jeewan Sangharsh ki gatha
इतिहासकारों की मानें तो गोवा को पुर्तगालियों से मुक्त कराने के लिए 1960 में हुए आंदोलन में जिले से एक जत्था गया था। इसमें सीधी से चंद्रप्रताप तिवारी, बांकेलाल उर्फ बंका बैगा, रामभजन बैगा, नीलकंठ तिवारी तथा रीवा से जमुना प्रसाद शास्त्री व जगदीश चंद्र जोशी गए थे। जब आंदोलन शुरू हुआ और पुर्तगाली गोली चलाने लगे तो आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं ने सभी से जमीन पर लेटने के लिए कहा। सभी लेट गए पर बंका बैगा समझ नहीं पाए। इससे खड़े ही रह गए। उसी दौरान उनके जंघा में गोली के छर्रे लग गए और भाग नहीं पाए। पुर्तगालियों ने उन्हें खूब मारा, जिससे रीढ़ की हड्डी टूट गई थी। बंका बैगा के बाल बड़े थे, इसलिए किसी पुर्तगाली ने कहा कि लगता है साधू है और फिर एक गड्ढेे में कीचड़ में ही छोड़कर चले गए। इसके बाद भारतीय सैनिकों ने उपचार कराया। जब ठीक हो गए तो गोवा से पैदल ही चल दिए। कुछ दिन चलते फिर कहीं मजदूरी करते। फिर चलते। ऐसा करते 4 महीने में घर पहुंचे थे।
swatantrata Senani Rameshwar Garg ji Ke bare me jaane Aaj ke Karikram me
Neemach ki Mahilao Ka Yoogdaan , Swadhinta Sangram
शाहगढ़ रियासत पन्ना नरेश छत्रसाल ने अपने बड़े पुत्र हृदय साल को 1732 में सौंपी रितेश शाह के बड़े पुत्र सौभा सिंह 1739 में पन्ना रखे राजा बने Shobha Singh ne 1744 में यह रियासत मराठा सूबेदार पृथ्वीराज को सौंप दी जिससे ₹300000 की आय होती थी पृथ्वीराज के बाद उनके पुत्र हरी सिंह यहां के राजा बने निसंतान होने के कारण हरि सिंह ने अपने भतीजे मर्दन सिंह को गोद लिया मदन सिंह ने 1784 से 1810 तक रियासत पर शासन कियाl इनके पुत्र अर्जुन सिंह थे जिन्होंने 1842 तक शासन किया| अर्जुन सिंह के भतीजे बख्त बली थे ! यह अर्जुन सिंह के भाई तखत सिंह के पुत्र थे इन्होंने बुंदेला विद्रोह में {1842} अंग्रेजों का साथ दिया था जब की अट्ठारह सौ सत्तावन की की क्रांति में अंग्रेजों के विरुद्ध लोहा लिया इनके सेनापति बोधन दुआ थे इन्होंने अंग्रेजों को सागर राहतगढ़ तथा चरखारी में घुटने टिका दिए अंग्रेजों को किले मे 6 माह कैद करके रखा दोनों ही बड़े बहादुर थे अंग्रेजों ने उन्हें 1858 में समर्पण करने पर मजबूर जरूर किया किंतु जन दबाव के कारण उन्हें सजा नहीं दे पाए राजा bhakhat वली की मृत्यु 1869 में हुई।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था, 'भारतेन्दु' उनकी उपाधि थी। उनका कार्यकाल युग की सन्धि पर खड़ा है। उन्होंने रीतिकाल की विकृत सामन्ती संस्कृति की पोषक वृत्तियों को छोड़कर स्वस्थ परम्परा की भूमि अपनाई और नवीनता के बीज बोये। हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेन्दु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया। ब्रिटिश राज की शोषक प्रकृति का चित्रण करने वाले उनके लेखन के लिए उन्हें युग चारण माना जाता है। भारतेन्दु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिन्दी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। हिन्दी में नाटकों का प्रारम्भ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। भारतेन्दु के नाटक लिखने की शुरुआत बंगला के विद्यासुन्दर (1867) नाटक के अनुवाद से होती है। यद्यपि नाटक उनके पहले भी लिखे जाते रहे किन्तु नियमित रूप से खड़ीबोली में अनेक नाटक लिखकर भारतेन्दु ने ही हिन्दी नाटक की नींव को सुदृढ़ बनाया। उन्होंने 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका', 'कविवचनसुधा' और 'बाला बोधिनी' पत्रिकाओं का संपादन भी किया। वे एक उत्कृष्ट कवि, सशक्त व्यंग्यकार, सफल नाटककार, जागरूक पत्रकार तथा ओजस्वी गद्यकार थे। इसके अलावा वे लेखक, कवि, सम्पादक, निबन्धकार, एवं कुशल वक्ता भी थे। भारतेन्दु जी ने मात्र चौंतीस वर्ष की अल्पायु में ही विशाल साहित्य की रचना की। उन्होंने मात्रा और गुणवत्ता की दृष्टि से इतना लिखा और इतनी दिशाओं में काम किया कि उनका समूचा रचनाकर्म पथदर्शक बन गया।
अरविन्द घोष या श्री अरविन्द एक योगी एवं दार्शनिक थे। वे १५ अगस्त १८७२ को कलकत्ता में जन्मे थे। इनके पिता एक डाक्टर थे। इन्होंने युवा अवस्था में स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारी के रूप में भाग लिया, किन्तु बाद में यह एक योगी बन गये और इन्होंने पांडिचेरी में एक आश्रम स्थापित किया। वेद, उपनिषद ग्रन्थों आदि पर टीका लिखी। योग साधना पर मौलिक ग्रन्थ लिखे। उनका पूरे विश्व में दर्शन शास्त्र पर बहुत प्रभाव रहा है और उनकी साधना पद्धति के अनुयायी सब देशों में पाये जाते हैं। यह कवि भी थे और गुरु भी। अरविन्द के पिता डॉक्टर कृष्णधन घोष उन्हें उच्च शिक्षा दिला कर उच्च सरकारी पद दिलाना चाहते थे, अतएव मात्र ७ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने इन्हें इंग्लैण्ड भेज दिया। उन्होंने केवल १८ वर्ष की आयु में ही आई० सी० एस० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। इसके साथ ही उन्होंने अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, ग्रीक एवं इटैलियन भाषाओँ में भी निपुणता प्राप्त की थी। देशभक्ति से प्रेरित इस युवा ने जानबूझ कर घुड़सवारी की परीक्षा देने से इनकार कर दिया और राष्ट्र-सेवा करने की ठान ली। इनकी प्रतिभा से बड़ौदा नरेश अत्यधिक प्रभावित थे अत: उन्होंने इन्हें अपनी रियासत में शिक्षा शास्त्री के रूप में नियुक्त कर लिया। बडौदा में ये प्राध्यापक, वाइस प्रिंसिपल, निजी सचिव आदि कार्य योग्यता पूर्वक करते रहे और इस दौरान हजारों छात्रों को चरित्रवान देशभक्त बनाया।1896 से 1905 तक उन्होंने बड़ौदा रियासत में राजस्व अधिकारी से लेकर बड़ौदा कालेज के फ्रेंच अध्यापक और उपाचार्य रहने तक रियासत की सेना में क्रान्तिकारियों को प्रशिक्षण भी दिलाया था। हजारों युवकों को उन्होंने क्रान्ति की दीक्षा दी थी। वे निजी रुपये-पैसे का हिसाब नहीं रखते थे परन्तु राजस्व विभाग में कार्य करते समय उन्होंने जो विश्व की प्रथम आर्थिक विकास योजना बनायी उसका कार्यान्वयन करके बड़ौदा राज्य देशी रियासतों में अन्यतम बन गया था। महाराजा मुम्बई की वार्षिक औद्योगिक प्रदर्शनी के उद्धाटन हेतु आमन्त्रित किये जाने लगे थे। लार्ड कर्जन के बंग-भंग की योजना रखने पर सारा देश तिलमिला उठा। बंगाल में इसके विरोध के लिये जब उग्र आन्दोलन हुआ तो अरविन्द घोष ने इसमे सक्रिय रूप से भाग लिया। नेशनल लाॅ कॉलेज की स्थापना में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। मात्र ७५ रुपये मासिक पर इन्होंने वहाँ अध्यापन-कार्य किया। पैसे की जरूरत होने के बावजूद उन्होंने कठिनाई का मार्ग चुना। अरविन्द कलकत्ता आये तो राजा सुबोध मलिक की अट्टालिका में ठहराये गये। पर जन-साधारण को मिलने में संकोच होता था। अत: वे सभी को विस्मित करते हुए 19/8 छक्कू खानसामा गली में आ गये। उन्होंने किशोरगंज (वर्तमान में बंगलादेश में) में स्वदेशी आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। अब वे केवल धोती, कुर्ता और चादर ही पहनते थे। उसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय विद्यालय से भी अलग होकर अग्निवर्षी पत्रिका बन्दे मातरम् (पत्रिका) का प्रकाशन प्रारम्भ किया। ब्रिटिश सरकार इनके क्रन्तिकारी विचारों और कार्यों से अत्यधिक आतंकित थी अत: २ मई १९०८ को चालीस युवकों के साथ उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इतिहास में इसे 'अलीपुर षडयन्त्र केस' के नाम से जानते है। उन्हें एक वर्ष तक अलीपुर जेल में कैद रखा गया।| अलीपुर जेल में ही उन्हें हिन्दू धर्म एवं हिन्दू-राष्ट्र विषयक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूति हुई। इस षड़यन्त्र में अरविन्द को शामिल करने के लिये सरकार की ओर से जो गवाह तैयार किया था उसकी एक दिन जेल में ही हत्या कर दी गयी। घोष के पक्ष में प्रसिद्ध बैरिस्टर चितरंजन दास ने मुकदमे की पैरवी की थी। उन्होने अपने प्रबल तर्कों के आधार पर अरविन्द को सारे अभियोगों से मुक्त घोषित करा दिया। इससे सम्बन्धित अदालती फैसले ६ मई १९०९ को जनता के सामने आये। ३० मई १९०९ को उत्तरपाड़ा में एक संवर्धन सभा की गयी वहाँ अरविन्द का एक प्रभावशाली व्याख्यान हुआ जो इतिहास में उत्तरपाड़ा अभिभाषण के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने अपने इस अभिभाषण में धर्म एवं राष्ट्र विषयक कारावास-अनुभूति का विशद विवेचन करते हुए कहा था। जब मुझे आप लोगों के द्वारा आपकी सभा में कुछ कहने के लिए कहा गया तो में आज एक विषय हिन्दू धर्म पर कहूँगा। मुझे नहीं पता कि मैं अपना आशय पूर्ण कर पाउँगा या नहीं। जब में यहाँ बैठा था तो मेरे मन में आया कि मुझे आपसे बात करनी चाहिए। एक शब्द पूरे भारत से कहना चाहिये। यही शब्द मुझसे सबसे पहले जेल में कहा गया और अब यह आपको कहने के लिये मैं जेल से बाहर आया हूँ। एक साल हो गया है मुझे यहाँ आए हुए। पिछली बार आया था तो यहाँ राष्ट्रीयता के बड़े-बड़े प्रवर्तक मेरे साथ बैठे थे। यह तो वह सब था जो एकान्त से बाहर आया जिसे ईश्वर ने भेजा था ताकि जेल के एकान्त में वह इश्वर के शब्दों
मोहनदास करमचन्द गांधी जिन्हें महात्मा गांधी के नाम से भी जाना जाता है, भारत एवं भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी जिसने भारत को भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम दिलाकर पूरे विश्व में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें संसार में साधारण जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस्कृत भाषा में महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द है। गांधी को महात्मा के नाम से सबसे पहले 1915 में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने संबोधित किया था। एक अन्य मत के अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द ने 1915 मे महात्मा की उपाधि दी थी, तीसरा मत ये है कि गुरु रविंद्रनाथ टैगोर ने महात्मा की उपाधि प्रदान की थी। 12 अप्रैल 1919 को अपने एक लेख मे | । उन्हें बापू (गुजराती भाषा में બાપુ बापू अर्थात् पिता) के नाम से भी स्मरण किया जाता है। एक मत के अनुसार गांधीजी को बापू सम्बोधित करने वाले प्रथम व्यक्ति उनके साबरमती आश्रम के शिष्य थे सुभाष चन्द्र बोस ने 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से गांधी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं। प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को उनका जन्म दिन भारत में गांधी जयन्ती के रूप में और पूरे विश्व में अन्तरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले गान्धी जी ने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु सत्याग्रह करना आरम्भ किया। 1915 में उनकी भारत वापसी हुई। उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, श्रमिकों और नगरीय श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में दरिद्रता से मुक्ति दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला स्वराज की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये लवण कर के विरोध में 1930 में नमक सत्याग्रह और इसके बाद 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन से विशेष विख्याति प्राप्त की। दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें कारागृह में भी रहना पड़ा। गांधी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये वकालत भी की। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन बिताया और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रखे। 12 फरवरी वर्ष 1948 में महात्मा गांधी के अस्थि कलश जिन 12 तटों पर विसर्जित किए गए थे, त्रिमोहिनी संगम भी उनमें से एक है |
माखनलाल चतुर्वेदी भारत के ख्यातिप्राप्त कवि, लेखक और पत्रकार थे जिनकी रचनाएँ अत्यंत लोकप्रिय हुईं। सरल भाषा और ओजपूर्ण भावनाओं के वे अनूठे हिंदी रचनाकार थे। प्रभा और कर्मवीर जैसे प्रतिष्ठत पत्रों के संपादक के रूप में उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जोरदार प्रचार किया और नई पीढ़ी का आह्वान किया कि वह गुलामी की जंज़ीरों को तोड़ कर बाहर आए। इसके लिये उन्हें अनेक बार ब्रिटिश साम्राज्य का कोपभाजन बनना पड़ा। वे सच्चे देशप्रेमी थे और १९२१-२२ के असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए जेल भी गए। उनकी कविताओं में देशप्रेम के साथ-साथ प्रकृति और प्रेम का भी चित्रण हुआ है, इसलिए वे सच्चे अर्थों में युग-चारण माने जाते हैं।[ श्री माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले में बाबई नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम नंदलाल चतुर्वेदी था जो गाँव के प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक थे। प्राथमिक शिक्षा के बाद घर पर ही इन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में वे खड़ी बोली के प्रथम महत्त्वपूर्ण कवि हैं।] उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था। उनकी कृति भारत-भारती (1912) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के समय में काफी प्रभावशाली सिद्ध हुई थी और इसी कारण महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि' की पदवी भी दी थी। उनकी जयन्ती ३ अगस्त को हर वर्ष 'कवि दिवस' के रूप में मनाया जाता है। सन १९५४ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया।[4] महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से गुप्त जी ने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य-भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में यह गुप्त जी का सबसे बड़ा योगदान है। घासीराम व्यास जी उनके मित्र थे। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के प्रथम गुण हैं, जो 'पंचवटी' से लेकर 'जयद्रथ वध', 'यशोधरा' और 'साकेत' तक में प्रतिष्ठित एवं प्रतिफलित हुए हैं। 'साकेत' उनकी रचना का सर्वोच्च शिखर है।
भारत के राष्ट्रीय ध्वज जिसे तिरंगा भी कहते हैं, तीन रंग की क्षैतिज पट्टियों के बीच नीले रंग के एक चक्र द्वारा सुशोभित ध्वज है। इसकी अभिकल्पना पिंगली वैंकैया ने की थी। इसे १५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों से भारत की स्वतंत्रता के कुछ ही दिन पूर्व २२ जुलाई, १९४७ को आयोजित भारतीय संविधान-सभा की बैठक में अपनाया गया था। इसमें तीन समान चौड़ाई की क्षैतिज पट्टियाँ हैं, जिनमें सबसे ऊपर केसरिया रंग की पट्टी जो देश की ताकत और साहस को दर्शाती है, बीच में श्वेत पट्टी धर्म चक्र के साथ शांति और सत्य का संकेत है ओर नीचे गहरे हरे रंग की पट्टी देश के शुभ, विकास और उर्वरता को दर्शाती है। ध्वज की लम्बाई एवं चौड़ाई का अनुपात ३:२ है। सफेद पट्टी के मध्य में गहरे नीले रंग का एक चक्र है जिसमें २४ आरे (तीलियां) होते हैं। यह इस बात प्रतीक है भारत निरंतर प्रगतिशील है| इस चक्र का व्यास लगभग सफेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर होता है व इसका रूप सारनाथ में स्थित अशोक स्तंभ के शेर के शीर्षफलक के चक्र में दिखने वाले की तरह होता है। भारतीय राष्ट्रध्वज अपने आप में ही भारत की एकता, शांति, समृद्धि और विकास को दर्शाता हुआ दिखाई देता है।
मदनलाल ढींगरा भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अप्रतिम क्रान्तिकारी थे। भारतीय स्वतंत्रता की चिनगारी को अग्नि में बदलने का श्रेय महान शहीद मदन लाल धींगरा को ही जाता है । भले ही मदन लाल ढींगरा के परिवार में राष्ट्रभक्ति की कोई ऐसी परंपरा नहीं थी किंतु वह खुद से ही देश भक्ति के रंग में रंगे गए थे । वे इंग्लैण्ड में अध्ययन कर रहे थे जहाँ उन्होने विलियम हट कर्जन वायली नामक एक ब्रिटिश अधिकारी की गोली मारकर हत्या कर दी। कर्जन वायली की हत्या के आरोप में उन पर 23 जुलाई, 1909 का अभियोग चलाया गया । मदन लाल ढींगरा ने अदालत में खुले शब्दों में कहा कि "मुझे गर्व है कि मैं अपना जीवन समर्पित कर रहा हूं।" यह घटना बीसवीं शताब्दी में भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की कुछेक प्रथम घटनाओं में से एक है। मदनलाल धींगड़ा का जन्म १८ सितंबर सन् १८८३ को पंजाब प्रान्त के एक सम्पन्न हिन्दू परिवार में हुआ था। उनके पिता दित्तामल जी सिविल सर्जन थे और अंग्रेजी रंग में पूरी तरह रंगे हुए थे किन्तु माताजी अत्यन्त धार्मिक एवं भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण महिला थीं। उनका परिवार अंग्रेजों का विश्वासपात्र था और जब मदनलाल को भारतीय स्वतन्त्रता सम्बन्धी क्रान्ति के आरोप में लाहौर के एक कालेज से निकाल दिया गया तो परिवार ने मदनलाल से नाता तोड़ लिया। मदनलाल को जीवन यापन के लिये पहले एक क्लर्क के रूप में, फिर एक तांगा-चालक के रूप में और अन्त में एक कारखाने में श्रमिक के रूप में काम करना पड़ा। कारखाने में श्रमिकों की दशा सुधारने हेतु उन्होने यूनियन (संघ) बनाने की कोशिश की किन्तु वहाँ से भी उन्हें निकाल दिया गया। कुछ दिन उन्होंने मुम्बई में काम किया फिर अपनी बड़े भाई की सलाह पर सन् १९०६ में उच्च शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैण्ड चले गये जहाँ उन्होंने यूनिवर्सिटी कालेज लन्दन में यांत्रिकी अभियांत्रिकी में प्रवेश ले लिया। विदेश में रहकर अध्ययन करने के लिये उन्हें उनके बड़े भाई ने तो सहायता दी ही, इंग्लैण्ड में रह रहे कुछ राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं से भी आर्थिक मदद मिली थी।
कुंवर चैन सिंह मध्य प्रदेश में भोपाल के निकट स्थित नरसिंहगढ़ रियासत के राजकुमार थे, जो 24 जुलाई 1824 को अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। 1857 के सशस्त्र स्वाधीनता संग्राम से भी लगभग 33 वर्ष पूर्व की यह घटना कुंवर चैन सिंह को इस अंचल के पहले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में प्रतिष्ठित करती है। मध्य प्रदेश सरकार ने वर्ष 2015 से सीहोर स्थित कुंवर चैन सिंह की छतरी पर गार्ड ऑफ ऑनर प्रारम्भ किया है। सन 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भोपाल के तत्कालीन नवाब से समझौता करके सीहोर में एक हजार सैनिकों की छावनी स्थापित की। कंपनी द्वारा नियुक्त पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक को इन फौजियों का प्रभारी बनाया गया। इस फौजी टुकड़ी का वेतन भोपाल रियासत के शाही खजाने से दिया जाता था। समझौते के तहत पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक को भोपाल सहित नजदीकी नरसिंहगढ़, खिलचीपुर और राजगढ़ रियासत से संबंधित राजनीतिक अधिकार भी सौंप दिए गए। बाकी तो चुप रहे, लेकिन इस फैसले को नरसिंहगढ़ रियासत के युवराज कुंवर चैन सिंह ने गुलामी की निशानी मानते हुए स्वीकार नहीं किया।
सुभद्रा कुमारी चौहान हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं। झाँसी की रानी (कविता) उनकी प्रसिद्ध कविता है। वे राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रही हैं। स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएँ सहने के पश्चात अपनी अनुभूतियों को कहानी में भी व्यक्त किया।उनका जन्म नागपंचमी के दिन इलाहाबाद के निकट निहालपुर नामक गांव में रामनाथसिंह के जमींदार परिवार में हुआ था। बाल्यकाल से ही वे कविताएँ रचने लगी थीं। उनकी रचनाएँ राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान, चार बहने और दो भाई थे। उनके पिता ठाकुर रामनाथ सिंह शिक्षा के प्रेमी थे और उन्हीं की देख-रेख में उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी हुई। इलाहाबाद के क्रास्थवेट गर्ल्स स्कूल में महादेवी वर्मा उनकी जूनियर और सहेली थीं। १९१९ में खंडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह के साथ विवाह के बाद वे जबलपुर आ गई थीं। १९२१ में गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाली वह प्रथम महिला थीं। वे दो बार जेल भी गई थीं। सुभद्रा कुमारी चौहान की जीवनी, इनकी पुत्री, सुधा चौहान ने 'मिला तेज से तेज' नामक पुस्तक में लिखी है। इसे हंस प्रकाशन, इलाहाबाद ने प्रकाशित किया है। वे एक रचनाकार होने के साथ-साथ स्वाधीनता संग्राम की सेनानी भी थीं। डॉo मंगला अनुजा की पुस्तक सुभद्रा कुमारी चौहान उनके साहित्यिक व स्वाधीनता संघर्ष के जीवन पर प्रकाश डालती है। साथ ही स्वाधीनता आंदोलन में उनके कविता के जरिए नेतृत्व को भी रेखांकित करती है। १५ फरवरी १९४८ को एक कार दुर्घटना में उनका आकस्मिक निधन हो गया था