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Author: Vedanta Ashram

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Pravachans / Moral-Stories / Chantings / Bhajans - by Mahatmas of Vedanta Ashram, Indore
523 Episodes
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वेदान्त आश्रम, इंदौर की पू स्वामिनी पूर्णानन्द जी से एक सुन्दर प्रेरक कहानी सुनें जिसका शीर्षक है - खिचड़ी भोग। (0124-01-sp)
वेदान्त आश्रम, इंदौर की पू स्वामिनी पूर्णानन्द जी से एक सुन्दर प्रेरक कहानी सुनें जिसका शीर्षक है - अहंकार और प्रेम। (1223-02-sp)
वेदान्त आश्रम, इंदौर की पू स्वामिनी पूर्णानन्द जी से एक सुन्दर प्रेरक कहानी सुनें जिसका शीर्षक है - ईश्वर दर्शन।
पू स्वामिनी पूर्णानन्द जी से एक सुन्दर प्रेरक कहानी सुनें जिसका शीर्षक है - संतोषरुपी धन।
पू स्वामिनी पूर्णानन्द जी से एक सुन्दर प्रेरक कहानी सुनें जिसका शीर्षक है - परछाई।
पू स्वामिनी पूर्णानन्द जी से एक सुन्दर प्रेरक कहानी सुनें जिसका शीर्षक है - सद्गुरु महिमा।
पू स्वामिनी पूर्णानन्द जी से एक सुन्दर प्रेरक कहानी सुनें जिसका शीर्षक है - घमंड।
पू स्वामिनी पूर्णानन्द जी से एक सुन्दर प्रेरक कहानी सुनें जिसका शीर्षक है - परमात्मा का कार्य।
पू स्वामिनी पूर्णानन्द जी से एक सुन्दर प्रेरक कहानी सुनें जिसका शीर्षक है - राजा की प्रशंसा।
पू स्वामिनी पूर्णानन्द जी से एक सुन्दर प्रेरक कहानी सुनें जिसका शीर्षक है - विनम्रता की जीत।
वेदान्त आश्रम, इंदौर के अन्तेवासी महात्माओं के द्वारा शिव महिम्न स्तोत्र का पाठ। 
गीता महायज्ञ में श्रीमद्भगवद गीता के अंतिम अर्थात समापन प्रवचन में वेदांत आश्रम, इंदौर के आचार्य परं पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने मोक्ष-सन्यास योग नामक १८वें अध्याय के दूसरे भाग में आगे बताते हुए कहा की गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को न केवल जीवन का परम लक्ष्य बताते हैं लेकिन उसके लिए साधन भी स्पष्टता से बताते हैं। लक्ष्य अपनी वास्तविकता को जानना और उसमे जगना होता है, और इसके लिए मन को सन्यस्त करना होता है, सन्यस्त मन के लिए पहले त्यागी बनना चाहिए। त्यागी होने के लिए कर्म अथवा किसी भी अन्य बाहरी चीज़ का त्याग आपेक्षित नहीं है, बल्कि कर्म में अपेक्षा एवं अभिमान आदि आतंरिक विकारों को छोड़ना होता है। ये पूरी बात भगवान् ने अनेकानेक तरीके से बताई। अंत में गीता की महिमा बताई और अर्जुन से उसके मन की स्थिति पूछी। अर्जुन ने अत्यंत धन्यता से कहा की उसका मोह नष्ट हो गया है। ग्रन्थ का समापन संजय के वचनों से हुआ, वो भी अपनी धन्यता व्यक्त करता है। 
गीता महायज्ञ में श्रीमद्भगवद गीता के अंतिम अध्याय (१८वें) जिसका नाम मोक्ष-सन्यास योग है, उसके पहले भाग में अध्याय का सार बताते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने कहा कि इस अध्याय का भी प्रारम्भ अर्जुन के एक प्रश्न से होता है। वो पूछता है की हे महाबाहो, हमने आपके उद्बोधन को ध्यान से सुना, इसमें आपने अनेको जगह सन्यास एवं अनेको जगह त्याग शब्दों का कई बार प्रयोग किया, क्या ये दोनों एक ही भाव से प्रयुक्त हैं या ये दोनों भिन्नार्थ है? इसके उत्तर में भगवान् ने बताया की सन्यास एकार्थ नहीं हैं - ये वस्तुतः साध्य एवं साधन रूपा होते हैं। सन्यास उसको कहते हैं जब व्यक्ति में कोई भी काम्य कर्म नहीं होते हैं, और त्याग शब्द उसके लिए प्रयुक्त है जहाँ व्यक्ति में कामनाएं तो हैं और उसके लिए वो कर्म भी करता है लेकिन अपनी मेहनत के बाद जो भी फल प्राप्त होता है वो अपने को मात्र उसका हेतु नहीं समझता है। त्याग शब्द के अपने आशय को बताते हुए भगवान् यहाँ भी तीन गुणों को आधार बनाते हुए बताते हैं की सात्त्विक त्याग से ही त्याग का फल मिलता है। आगे का विस्तार दूसरे भाग में बताया जायेगा।
गीता महायज्ञ में श्रीमद्भगवद गीता के १७वें अध्याय (श्रद्धात्रयविभाग योग) का सार बताते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने कहा कि इस अध्याय का प्रारम्भ अर्जुन के एक प्रश्न से होता है। वो पूछता है की हे कृष्ण, हमें शास्त्र के द्वारा प्रतिपादित ज्ञान से चलना चाहिए ये बात हमको समझ में आती है, लेकिन भगवन शास्त्र का ज्ञान तो धीमे-धीमे ही प्राप्त होता है, प्रारम्भ में तो हमें पता ही नहीं होता है की शास्त्र वस्तुतः क्या कह रहे हैं, फिर भी हमारी शास्त्र के प्रति श्रद्धा है, ऐसे परिस्थिति में हमारी स्थिति कैसी होती है - सात्त्विक, राजसी अथवा तामसी। भगवान् इस महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं की तुम्हारी श्रद्धा तो है लेकिन तुम यह भी जानो की हम सब की श्रद्धा भी तीन प्रकार की होती है। अगर सात्त्विक है तो शास्त्र का ज्ञान न भी हो तब भी हमारी उर्ध्व गति होगी अन्यथा नहीं। पूरे अध्याय में भगवान् हमें वो ज्ञान देते है जिससे हम लोग अपनी श्रद्धा का स्वरुप जान सकें, तथा जानकर यथा आवश्यक परिवर्तन कर सकें।
गीता महायज्ञ में श्रीमद्भगवद गीता के १६वें अध्याय (दैवासुरविभाग योग) का सार बताते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने कहा कि इस अध्याय में व्यक्ति को अपनी प्रेरणाओं के अवलोकन की प्रेरणा दी जा रही है। हम सब अध्ययन या श्रवण आदि कुछ भी करें लेकिन अंततः यह देखा जाना चाहिए की हमारे मन में अब प्रेरणा किस चीज़ की हो रही है। हमें अब क्या अच्छा लगाने लगा है। भले वो गुण आज हमारे अंदर नहीं हों लेकिन चाह अवश्य हो गयी है। इसके लिए भगवान् ने यह अध्याय दिया है। मोटे तौर से ये हमारी प्रेरणानों के दो प्रकार की होती हैं - दैवी और आसुरी। इन दोनों के बारे में जानना अत्यंत आवश्यक होता है क्यूंकि दैवी संपत्ति होने से ही हम मुक्ति के पथ पर चलते हैं, और आसुरी गुणों से बंधन और प्रगाढ़ होता जाता है। 
गीता महायज्ञ में श्रीमद्भगवद गीता के पुरुषोत्तम योग नामक १५वें अध्याय का सार बताते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने कहा कि यह अध्याय हमारे लिए शीशे की तरह से है - जो की हमारी पारमार्थिक वास्तिविकता बताता है। जिस पुरुष तत्त्व को पिछले अध्याय में बताया था, उसकी गहराई में इस अध्याय में भगवान हमें ले जा रहे हैं। किसको वेदों का जानकार कहते हैं? उसके कैसे मूल्य होते हैं? वो कैसे संसार के अंतहीन झमेलों से मुक्त होता है? और कैसे अन्तर्मुख बनता है? उसकी ईश्वर-उपसना का कैसा स्वरुप होता है? हम सबका पारमार्थिक स्वरुप क्या होता है? और उसे कैसे जाना जाता है? - ये सब बातें इस छोटे लेकिन अत्यंत सुन्दर एवं गहन अध्याय में बताई गयी हैं।
गीता महायज्ञ के १६वें दिन गीता के गुणत्रयविभाग योग नामक १४वें अध्याय का सार बताते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने कहा कि इस अध्याय में भगवान् आत्म-अनात्म विवेक को एक दूसरी तरह से प्रस्तुत करते हैं - वह है प्रकृति एवं पुरुष विवेक। वे इस विवेक की स्तुति पूर्वक कहते हैं सृष्टि को प्रारम्भ से देखना चाहिए। प्रारम्भ में परमात्मा खुद प्रकृति में गर्भादान करते हैं जिससे वो सृष्टि की प्रक्रिया प्रारम्भ करती है। प्रकृति में निहित तीन गुण विविध रूप से व्यक्त होकर ये सृष्टि बनाते हैं। ये तीन गुण सब विविधिता एवं गति के हेतु होते हैं। सब कर्तापन इन्ही गुणों का होता है। जो व्यक्ति इस तथ्य को देख पाता है, तथा इन गुणों से परे चिन्मयी एवं अकर्ता अधिष्ठाता देख लेता है वो गुणातीत हो जाता है, ऐसा व्यक्ति ही मुक्त और धन्य हो जाता है। अध्याय के अंत में इन गुणातीत व्यक्ति के अनेकानेक लक्षण आदि बताते हैं।
गीता महायज्ञ के १५वें दिन गीता के क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग नामक १३वें अध्याय का सार बताते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने कहा कि इस अध्याय में भगवान् हमें आत्म-अनात्म विवेक के बारे में बताते हैं। परमत्मा को इसी विवेक से अपरोक्षतः जाना जाता है। इसका प्रारम्भ करते हुए प्रभु कहते हैं की अपने शरीर को क्षेत्र कहा जाता है और जो इसको जनता है उसे क्षेत्रज्ञ जानो, और वह खुद परमात्मा ही होते हैं। क्षेत्र ज्ञान का विषय होता है और क्षेत्रज्ञ उसको जानने वाला। इन दोनों का स्पष्ट विवेक होना चाहिए। इस ज्ञान के लिए कुछ आवश्यक मूल्य होते हैं - अमानित्व से प्रारम्भ करते हुए वे २० मूल्य बताते हैं। फिर ज्ञेय के अनेकानेक सुन्दर लक्षण बताते हैं। जीव के अंदर कर्तापन और भोक्तापना उसके छोटे बने रहने में सबसे बड़ी बाधा होती है तो उसके लिए प्रकृति और पुरुष शब्द से उनका रहस्य बताते हैं, और अध्याय के अंत में ज्ञानी के लक्षण बताते हैं।
गीता महायज्ञ के १४वें दिन गीता के भक्ति योग नामक १२वें अध्याय का सार बताते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने कहा कि पिछले अध्याय के अंत में भगवान् ने कहा था की कण-कण में ईश्वर ही परम सत्य है यह स्पष्टता से जानने के बाद अब तुमको हमें ही अपने जीवन का केंद्र बिंदु बनाना चाहिए। अपने समस्त कर्म, भावनाएं और लक्ष्य हमें ही बनाकर जीना चाहिए। अर्जुन ने भी भक्ति की प्राप्ति को अपना लक्ष्य बना लिया। साध्य के निश्चय के उपरांत साधना का निश्चय करना पड़ता है। उसे भक्ति की मोठे तौर से दो प्रकार की साधनायें दिखाई पड़ती हैं। इसी से १२वां अध्याय प्रारम्भ होता है। वो पूछता है की प्रभु एक तरफ से यह भक्ति की साधना है जिसमे हम कर्म करते-करते सतत अपना मन आप में लगाई रखें और दूसरी तरफ समस्त कर्तव्यता आदि त्याग कर, सन्यस्त होकर अन्तर्मुख होकर आप जो की सबकी आत्मा की तरह से स्थित हैं उसमे अपने मन को लगाएं। इन दोनों में कौन से भक्ति की साधना श्रेष्ठ है। इस पर भगवान् कहते हैं की भगवान् ने दोनों प्रकार की साधनाओं की विस्तृत चर्चा करी। साधना का स्वरुप और अंत में भक्त के लक्षण।
गीता महायज्ञ के १३वें दिन गीता के विस्वरूपदर्शन योग नामक ११वें अध्याय का सार बताते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने कहा कि पिछले अध्याय के अंत में भगवान् ने कहा था की अर्जुन यद्यपि हमारी विविध विभूतियाँ हमारी स्मरण और भजन का अन्यन्त सुन्दर और सरल निमित्त होती हैं लेकिन ये अनंत होती हैं, और सभी को देखा भी नहीं जा सकता है। हम वस्तुतः अपने एक छोटे से अंश से पूरी दुनिया को धारण करते हैं। इस वाक्य से अर्जुन को प्रेरणा हुई की काश हम ईश्वर को वो रूप देख पाएं की वे ही पूरी दुनिया को व्याप्त और धारण कर रहे हैं। यह ही निवेदन भी करता है और भगवान् ने उसकी इच्छा स्वीकार करते हुए उसे कुछ समय के लिए एक दिव्य चक्षु प्रदान करी जिससे वो पूरे ब्रह्माण्ड में ईश्वर का अस्तित्व देखने लगा। इससे उसको बहुत सारी शिक्षाएं मिली जिनका पूज्य गुरूजी ने अपने सुन्दर उद्बोधन में चर्चा करी।
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