गीता महायज्ञ - अध्याय-12
Description
गीता महायज्ञ के १४वें दिन गीता के भक्ति योग नामक १२वें अध्याय का सार बताते हुए पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने कहा कि पिछले अध्याय के अंत में भगवान् ने कहा था की कण-कण में ईश्वर ही परम सत्य है यह स्पष्टता से जानने के बाद अब तुमको हमें ही अपने जीवन का केंद्र बिंदु बनाना चाहिए। अपने समस्त कर्म, भावनाएं और लक्ष्य हमें ही बनाकर जीना चाहिए। अर्जुन ने भी भक्ति की प्राप्ति को अपना लक्ष्य बना लिया। साध्य के निश्चय के उपरांत साधना का निश्चय करना पड़ता है। उसे भक्ति की मोठे तौर से दो प्रकार की साधनायें दिखाई पड़ती हैं। इसी से १२वां अध्याय प्रारम्भ होता है। वो पूछता है की प्रभु एक तरफ से यह भक्ति की साधना है जिसमे हम कर्म करते-करते सतत अपना मन आप में लगाई रखें और दूसरी तरफ समस्त कर्तव्यता आदि त्याग कर, सन्यस्त होकर अन्तर्मुख होकर आप जो की सबकी आत्मा की तरह से स्थित हैं उसमे अपने मन को लगाएं। इन दोनों में कौन से भक्ति की साधना श्रेष्ठ है। इस पर भगवान् कहते हैं की भगवान् ने दोनों प्रकार की साधनाओं की विस्तृत चर्चा करी। साधना का स्वरुप और अंत में भक्त के लक्षण।