Atma-Bodha Lesson # 63 :
Description
आत्म-बोध के 63rd श्लोक में भगवान् शंकराचार्यजी हमें ब्रह्म की अद्वितीयता की सिद्धि का तरीका बताते हैं। ध्यान रहे की जब तक द्वैत रहता है तब तक हमारा छोटापना, अर्थात जीव-भाव बना रहता है - तब तक कितना भी ज्ञान प्राप्त करलो मुक्ति नहीं मिलती है। द्वैत का मतलब होता है की हमारी यह धरना की हमसे पृथक किसी स्वतंत्र वस्तु का अस्तित्व है। यही नहीं वह वस्तु ही हमें पूर्णता, आनंद और सुरक्षा प्रदान करेगी - इसलिए हम सब ऐसी वस्तुओं की कामना करते है, उनसे आसक्त होते है, उनपर आश्रित होते हैं। इसी को अन्तहीन संसार कहते हैं। अब अगर हमें मोक्ष की सिद्धि करनी हो तो हमें मात्र अपने से पृथक समस्त दृश्य वस्तुओं के मिथ्यात्व का निश्चय करना होगा। यह ही इस श्लोक का विषय है। जिसे पूज्य गुरूजी ने अत्यंत सरलता और स्पष्टता से समझाया है।
इस पाठ के प्रश्न :
- १. जगत शब्द किसके लिए प्रयोग किया जाता है?
- २. जगत के मिथ्यात्व का क्या अर्थ होता है ?
- ३. अद्वैत-सिद्धि किए प्राप्त होती है ?
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