Discoverमधुरिम हिंदीकहानी की परिभाषा, तत्त्व, कहानी की तात्त्विक समीक्षा का प्रारूप-डॉ. मधुगुप्ता, सह आचार्य,
कहानी की परिभाषा, तत्त्व, कहानी की तात्त्विक समीक्षा का प्रारूप-डॉ. मधुगुप्ता, सह आचार्य,

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Update: 2021-03-30
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कहानी की तात्त्विक समीक्षा

प्रेमचंद के अनुसार "कहानी वह ध्रुपद की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरू होते ही अपनी संपूर्ण प्रतिभा दिखा देता है, एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है, जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता। उन्होंने कहा है कि "कहानी (गल्प) एक रचना है, जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र, उसकी शैली, उसका कथा-विन्यास, सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं। उपन्यास की भाँति उसमें मानव-जीवन का संपूर्ण तथा वृहत रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता। वह ऐसा रमणीय उद्यान नहीं, जिसमें भाँति-भाँति के फूल, बेल-बूटे सजे हुए हैं, बल्कि एक गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है।’' इस प्रकार कहानी वह गद्य रचना है' जिसमें जीवन के किसी एक अंग का सर्वांग प्रस्तुतिकरण होता है।

कहानी के तत्त्व-
कहानी की रचना एक कलात्मक विधान है, जो अभ्यास और प्रतिभा के द्वारा रूपाकार ग्रहण करती है। रोचकता, प्रभाव तथा वक्‍ता एवं श्रोता या कहानीकार एवं पाठक के बीच यथोचित सम्बद्धता बनाए रखने के लिए कहानियों में कथावस्तु, पात्र अथवा चरित्र-चित्रण, कथोपकथन अथवा संवाद, देशकाल अथवा वातावरण, भाषा-शैली तथा उद्देश्य महत्त्वपूर्ण तत्त्व माने गए हैं-

कहानी के प्रमुख तत्त्व-

1. कथावस्तु –
कहानी के ढाँचे को कथानक अथवा कथावस्तु कहा जाता है। प्रत्येक कहानी के लिए कथावस्तु का होना अनिवार्य है, क्योंकि इसके अभाव में कहानी की रचना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कथावस्तु जीवन की भिन्न- मिन्न दिशाओं और क्षेत्रों से ग्रहण की जाती है- पुराण, इतिहास, राजनीतिक, समाज आदि। कहानीकार इनमें से किसी भी क्षेत्र से कथावस्तु का चुनाव करता है और उसके आधार पर कथानक की अट्टालिका खड़ी करता है।

कथावस्तु में घटनाओं की अधिकता हो सकती है और एक ही घटना पर भी कहानी की रचना हो सकती है लेकिन, उनमें कोई न कोई घटना अवश्य होगी। वैसे तो कथानक की पांच दशाएं होती है-आरंभ ,विकास ,कोतुहल ,चरमसीमा और अंत, परंतु प्रत्येक कहानी में पांचों अवस्थाएं नहीं होती।
(कहानी का नाम) कहानी में कथानक संघर्ष की स्थिति को पार करता है , विकास को प्राप्त कर कौतूहल को जगाता हुआ , चरम सीमा पर पहुंचता है और उसी के साथ कहानी का अंत हो जाता है।
इस .......(कहानी का नाम ) कथानक के चार अंग हैं - आरम्भ, आरोह, चरम स्थिति एवं अवरोह।
(कहानी की मुख्य घटनाएं).................…..................

(कहानी का नाम) कथानक में मौलिकता,मौलिकता से तात्पर्य यहाँ नवीनता से है। सम्भाव्यता, सुगठितता एवं रोचकता चारों गुण स्पष्ट रूप से दरखे जा सकते हैं। ‘संक्षिप्तता’ इस कहानी के कथानक का अनिवार्य गुण है। कहानी का आरम्भ, मध्य और अन्त सुगठित है,

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कहानी के शरीर मेें कथानक हड्डियों के समान है, अतः (कहानीकार का नाम)ने कथानक की रचना अत्यन्त वैज्ञानिक तरीके से क्रमिक विकास के रूप में की है।

2. पात्र एवं चरित्र चित्रण –
कथावस्तु के बाद चरित्र-चित्रण कहानी का अत्यन्त आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। वस्तुतः पात्र कहानी के सजीव संचालक होते हैं। पात्रों के माध्यम से एक ओर कथानक का आरम्भ, विकास और अन्त होता है, तो दूसरी ओर हम कहानी में इनसे आत्मीयता प्राप्त करते हैं।
पात्रों के गुण-दोष को उनका 'चरित्र चित्रण' कहा जाता है। कहानी में वर्णित व्यक्ति ही कहानी में चरित्र कहलाता है।
(कहानी का नाम)में पात्रों की संख्या सीमित है। (कहानीकार का नाम) पात्रों के बाह्य और अंतरिक पक्षों का अधिक से अधिक मनोविश्र्लेषण कर उन्हें मूल घटना के साथ गहराई से जोड़ देता है।

(कहानी का नाम) कहानी में यथार्थवादी मनोविज्ञान पर बल दिया गया है अतः उसमें चरित्र चित्रण को अधिक महत्त्व दिया गया है। चरित्र चित्रण से विभिन्न चरित्रों में स्वाभाविकता उत्पन्न कर घटना और कार्य व्यापार के स्थान पर पात्र और उसका संघर्ष को ही कहानी की मूल धुरी बना दिया है।

(कहानी के मुख्य पात्रों के नाम)
कहानी के छोटे आकार तथा तीव्र प्रभाव के कारण पात्रों की संख्या सीमित है। मुख्य पात्र के साथ साथ कहानी में दूसरे पात्र के सबसे अधिक प्रभाव पूर्ण पक्ष की उसके व्यक्तित्व की केवल सर्वाधिक पुष्ट तत्व की झलक ही प्रस्तुत की गई है। अतः कहानी के पात्र वास्तविक सजीव स्वाभाविक तथा विश्वसनीय लगते हैं। पात्रों का चरित्र आकलन (लेखक का नाम) ने दोनों प्रकार से किया है- प्रत्यक्ष या वर्णात्मक शैली द्वारा इसमें लेखक स्वयं पात्र के चरित्र में प्रकाश डालता हैऔर परोक्ष या नाट्य शैली में पात्र स्वयं अपने वार्तालाप और क्रियाकलापों द्वारा अपने गुण दोषों का संकेत देता चलता है।
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Madhu Gupta