DiscoverNever Born, Never Died - हिन्दी
Never Born, Never Died - हिन्दी
Author: Oshō - ओशो
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© Oshō - ओशो
Description
"हमेशा याद रखें, जो भी मैं आपसे कहता हूं, आप इसे दो तरीकों से ले सकते हैं। आप इसे बस मेरे अधिकार पर ले जा सकते हैं, 'क्योंकि ओशो ऐसा कहते हैं, यह सच होना चाहिए' - तब आप पीड़ित होंगे, तब आप नहीं बढ़ेंगे।
"मैं जो भी कहता हूं, उसे सुनो, इसे समझने की कोशिश करो, इसे अपने जीवन में लागू करो, देखो कि यह कैसे काम करता है, और फिर अपने निष्कर्ष पर आओ। वे वही हो सकते हैं, वे नहीं भी हो सकते हैं। वे कभी भी समान नहीं हो सकते क्योंकि आपके पास एक अलग व्यक्तित्व है, एक अद्वितीय व्यक्ति है। ”
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"मैं जो भी कहता हूं, उसे सुनो, इसे समझने की कोशिश करो, इसे अपने जीवन में लागू करो, देखो कि यह कैसे काम करता है, और फिर अपने निष्कर्ष पर आओ। वे वही हो सकते हैं, वे नहीं भी हो सकते हैं। वे कभी भी समान नहीं हो सकते क्योंकि आपके पास एक अलग व्यक्तित्व है, एक अद्वितीय व्यक्ति है। ”
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अवनी पर आकाश गा रहा (अष्टावक्र : महागीता - 74)
अष्टावक्र उवाच।
अकुर्वन्नपि संक्षोभात् व्यग्रः सर्वत्र मूढ़धी।
कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलो हि निराकुलः।। 234।।
सुखमास्ते सुखं शेते सुखमायाति याति च।
सुखं वक्ति सुखं भुंक्ते व्यवहारेऽपि शांतधीः।। 235।।
स्वभावाद्यस्य नैवार्तिलोकवदव्यवहारिणः।
महाहृद इवाक्षोभ्यो गतक्लेशः सुशोभते।। 236।।
निवृत्तिरपि मूढ़स्य प्रवृत्तिरुपजायते।
प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी।। 237।।
परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो मूढ़स्य दृश्यते।
देहे विगलिताशस्य क्व रागः क्व विरागता।। 238।।
भावनाभावनासक्ता दृष्टिर्मूढ़स्य सर्वदा।
भाव्यभावनया सा तु स्वस्थयादृष्टिरूपिणी।। 239।।
अकुर्वन्नपि संक्षोभात् व्यग्रः सर्वत्र मूढ़धीः।
कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलो हि निराकुलः।।
सद्गुरुओं के अनूठे ढंग (अष्टावक्र : महागीता - 72)
अष्टावक्र उवाच।
अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं वात्मनो मन्यते यदा।
तदा क्षीणा भवंत्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।। 227।।
उच्छृंखलाप्यकृतिका थतिर्धीरस्य राजते।
न तु संस्पृहचित्तस्य शांतिर्मूढ़स्य कृत्रिमा।। 228।।
विलसन्ति महाभोगेैर्विशन्ति गिरिगह्वरान्।
निरस्तकल्पना धीरा अबद्धा मुक्तबुद्धयः।। 229।।
श्रोत्रियं देवतां तीर्थमंगनां भूपतिं प्रियम्।
दृष्ट्वा सम्पूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना।। 230।।
भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः।
विहस्य धिक्कृतो योगी न याति विकृतिं मनाक्।। 231।।
संतुष्टोऽपि न संतुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते।
तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा व जानन्ते।। 232।।
कर्तव्यतैव संसारो न तां पश्यन्ति सूरयः।
शून्याकारा निराकारा निर्विकारा निरामयाः।। 233।।
दिल का देवालय साफ करो (अष्टावक्र : महागीता - 70)
विषयद्वीपिनो वीक्ष्य चकिताः शरणार्थिनः।
विशंति झटिति क्रोडं निरोधैकाग्र्यसिद्धये।। 221।।
निर्वासनं हरिं दृष्ट्वा तूष्णीं विषयदंतिनः।
पलायंते न शक्तास्ते सेवंते कृतचाटवः।। 222।।
न मुक्तिकारिकां धत्ते निःशंको युक्तमानसः।
पश्यन्श्रृण्वन्स्पृशन्जिघ्रन्नश्नन्नास्ते यथासुखम्।। 223।।
वस्तुश्रवणमात्रेण शुद्धबुद्धिर्निराकुलः।
नैवाचारमनाचारमौदास्यं वा प्रपश्यति।। 224।।
यदा यत्कर्तुमायाति तदा तत्कुरुते ऋजुः।
शुभं वाप्यशुभं वापि तस्य चेष्टा हि बालवत्।। 225।।
स्वातंत्र्यात् सुखमाप्नोति स्वातंत्र्याल्लभते परम्।
स्वातंत्र्यान्निर्वृतिं गच्छेत् स्वातंत्र्यात् परमं पदम्।। 226।।
विषयद्वीपिनो वीक्ष्य चकिताः शरणार्थिनः।
विशंति झटिति क्रोडं निरोधैकाग्र्यसिद्धये।।
‘विषयरूपी बाघ को देखकर भयभीत हुआ मनुष्य शरण की खोज में शीघ्र ही चित्त-निरोध और एकाग्रता की सिद्धि के लिए पहाड़ की गुफा में प्रवेश करता है।’
मन तो मौसम-सा चंचल (अष्टावक्र : महागीता - 68)
क्वात्मनो दर्शनं तस्य यद्दृष्टमवलंबते।
धीरास्तं तं न पश्यंति पश्यंत्यात्मानमव्ययम्।। 216।।
क्व निरोधो विम़ूढस्य यो निर्बंधं करोति वै।
स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदाऽसावकृत्रिमः।। 217।।
भावस्य भावकः कश्चिन्न किंचिद्भावकोऽपरः।
उभयाभावकः कश्चिदेवमेव निराकुलः।। 218।।
शुद्धमद्वयमात्मानं भावयंति कुबुद्धयः।
न तु जानन्ति संमोहाद्यावज्जीवमनिर्वृताः।। 219।।
मुमुक्षोर्बुद्धिरालंबमंतरेण न विद्यते।
निरालंबैव निष्कामा बुद्धिर्मुक्तस्य सर्वदा।। 220।।
क्वात्मनो दर्शनं तस्य यद्दृष्टमवलंबते।
धीरास्तं तं न पश्यंति पश्यंत्यात्मानमव्ययम्।।
‘उसको आत्मा का दर्शन कहां है, जो दृश्य का अवलंबन करता है? धीरपुरुष दृश्य को नहीं देखते हैं और अविनाशी आत्मा को देखते हैं।’
अपनी बानी प्रेम की बानी (अष्टावक्र : महागीता - 66)
अप्रयत्नात् प्रयत्नाद्वा मूढ़ो नाप्नोति निर्वृतिम्।
तत्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृतः।। 210।।
शुद्धं बुद्धं प्रियं पूर्णं निष्प्रपंचं निरामयम्।
आत्मानं तं न जानन्ति तत्राभ्यासपरा जनाः।। 211।।
नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विम़ूढोऽभ्यासरूपिणा।
धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः।। 212।।
मूढ़ो नाप्नोति तद्ब्रह्म यतो भवितुमिच्छति।
अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्मस्वरूपभाक्।। 213।।
निराधारा ग्रहव्यग्रा मूढ़ाः संसारपोषकाः।
एतस्यानर्थमूलस्य मूलच्छेदः कृतो बुधैः।। 214।।
न शांतिं लभते मूढ़ो यतः शमितुमिच्छति।
धीरस्तत्वं विनिश्चित्य सर्वदा शांतमानसः।। 215।।
पहला सूत्र:
अप्रयत्नात् प्रयत्नाद्वा मूढो नाप्नोति निर्वृतिम्।
तत्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृतः।।
अष्टावक्र ने कहा, ‘अज्ञानी पुरुष प्रयत्न अथवा अप्रयत्न से सुख को प्राप्त नहीं होता है। और ज्ञानी पुरुष केवल तत्व को निश्चयपूर्वक जानकर सुखी हो जाता है।’
एकाकी रमता जोगी (अष्टावक्र : महागीता - 64)
असमाधेरविक्षेपान्न मुमुक्षुर्न चेतरः।
निश्चित्य कल्पितं पश्यन् ब्रह्मैवास्ते महाशयः।। 204।।
यस्यांतः स्यादहंकारो न करोति करोति सः।
निरहंकारधीरेण न किंचिद्धि कृतं कृतम्।। 205।।
नोद्विग्नं न च संतुष्टमकर्तृस्पंदवर्जितम्।
निराशं गतसंदेहं चित्तं मुक्तस्य राजते।। 206।।
निर्ध्यातुं चेष्टितुं वापि यच्चित्तं न प्रवर्तते।
निर्निमित्तमिदं किंतु निर्ध्यायति विचेष्टते।। 207।।
तत्त्वं यथार्थमाकर्ण्य मंदः प्राप्नोति मूढ़ताम्।
अथवाऽऽयाति संकोचममूढ़ः कोऽपि मूढ़वत्।। 208।।
एकाग्रता निरोधो वा मूढैरभ्यस्यते भृशम्।
धीराः कृत्यं न पश्यन्ति सुप्तवत् स्वपदे स्थिताः।। 209।।
असमाधेरविक्षेपान्न मुमुक्षुर्न चेतरः।
निश्चित्य कल्पितं पश्यन् ब्रह्मैवास्ते महाशयः।।
पहला सूत्र: ‘महाशय पुरुष विक्षेपरहित और समाधिरहित होने के कारण न मुमुक्षु है, न गैर-मुमुक्षु है; वह संसार को कल्पित देख ब्रह्मवत रहता है।’
घन बरसे (अष्टावक्र : महागीता - 62)
अष्टावक्र उवाच
निर्वासनो निरालंबः स्वच्छंदो मुक्तबंधनः।
क्षिप्तः संसारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत्।।197।।
असंसारस्य तु क्वापि न हर्षो न विषादता।
स शीतलमना नित्यं विदेह इव राजते।।198।।
कुत्रापि न जिहासाऽस्ति नाशो वापि न कुत्रचित्।
आत्मारामस्य धीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः।।199।।
प्रकृत्या शून्यचित्तस्य कुर्वतोऽस्य यदृच्छया।
प्राकृतस्येव धीरस्य न मानो नावमानता।।200।।
कृतं देहेन कर्मेदं न मया शुद्धरूपिणा।
इति चिंतानुरोधी यः कुर्वन्नपि करोति न।।201।।
अतद्वादीव कुरुते न भवेदपि बालिशः।
जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान् संसरन्नपि शोभते।।202।।
नानाविचारसुश्रांतो धीरो विश्रांतिमागतः।
न कल्पते न जानाति न श्रृणोति न पश्यति।।203।।
निर्वासनो निरालंबः स्वच्छंदो मुक्तबंधनः।
क्षिप्तः संसारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत्।।
इन छोटी-सी दो पंक्तियों में ज्ञान की परम व्याख्या समाहित है। इन दो पंक्तियों को भी कोई जान ले और जी ले तो सब हो गया। शेष करने को कुछ बचता नहीं।
प्रभु-मंदिर यह देह री (अष्टावक्र : महागीता - 60)
अष्टावक्र उवाच।
क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व ध्यानं क्व मुक्तता।
सर्वसंकल्पसीमायां विश्रांतस्य महात्मनः।। 190।।
येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोति वै।
निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति।। 191।।
येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिंतयेत्।
किं चिंतयति निश्चिन्तो द्वितीयं यो न पश्यति।। 192।।
दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ।
उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम्।। 193।।
धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।
न समाधिं न विक्षेपं न लेपं स्वस्थ पश्यति।। 194।।
भावाभावविहीनो यस्तृप्तो निर्वासनो बुधः।
नैव किंचित्कृतं तेन लोकदृष्ट्या विकुर्वता।। 195।।
प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।
यदा यत्कर्त्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठतः सुखम्।। 196।।
संन्यास--सहज होने की प्रक्रिया (अष्टावक्र : महागीता - 58)
अष्टावक्र उवाच।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
निष्कामः किंविजानाति किंब्रूते च करोति किम्।। 184।।
अयं सोऽहमयं नाहमिति क्षीणा विकल्पनाः।
सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णीभूतस्य योगिनः।। 185।।
न विक्षेपो न चैकाग्रयं नातिबोधो न मूढ़ता।
न सुखं न च वा दुःखमुपशांतस्य योगिनः।। 186।।
स्वराज्ये भैक्ष्यवृत्तौ च लाभालाभे जने वने।
निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः।। 187।।
क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकिता।
इदं कृतमिदं नेति द्वंद्वैर्मुक्तस्य योगिनः।। 188।।
कृत्यं किमपि नैवास्ति न कापि हृदि रंजना।
यथा जीवनमेवेह जीवनमुक्तस्य योगिनः।। 189।।
आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।
निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम्।।
पहला सूत्र: ‘आत्मा ब्रह्म है और भाव और अभाव कल्पित है। यह निश्चयपूर्वक जान कर निष्काम पुरुष क्या जानता है, क्या कहता है और क्या करता है?’
समझना: ‘आत्मा ब्रह्म है ऐसा निश्चयपूर्वक जान कर...।’
आलसी शिरोमणि हो रहो (अष्टावक्र : महागीता - 56)
अष्टावक्र उवाच।
यस्य बोधोदये तावत्स्वप्नवद्भवति भ्रमः।
तस्मै सुखैकरूपाय नमः शांताय तेजसे।। 177।।
अर्जयित्वाऽखिलानार्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान्।
नहि सर्वपरित्यागमंतरेण सुखी भवेत।। 178।।
कर्तव्यदुःखमार्तंडज्वालादग्धांतरात्मनः।
कुतः प्रशमपीयूषधारा सारमृते सुखम्।। 179।।
भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित्परमार्थतः।
नात्स्यभावः स्वभावानां भावाभार्वावभाविनाम्।। 180।।
न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मनः पदम्।
निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरंजनम्।। 181।।
व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः।
वीतशोका विराजंते निरावरणदृष्टयः।। 182।।
समस्तं कल्पनामात्रमात्मा मुक्तः सनातनः।
इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत्।। 183।।
यस्य बोधोदये तावत्स्वप्नवद्भवति भ्रमः।
तस्मै सुखैकरूपाय नमः शांताय तेजसे।।
‘जिसके बोध के उदय होने पर समस्त भ्रांति स्वप्न के समान तिरोहित हो जाती है, उस एकमात्र आनंदरूप, शांत और तेजोमय को नमस्कार है।’