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परमात्मा हमारा स्वभावसिद्ध अधिकार है (अष्‍टावक्र : महागीता - 55)

परमात्मा हमारा स्वभावसिद्ध अधिकार है (अष्‍टावक्र : महागीता - 55)

Update: 2022-03-04
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Description

अष्टावक्र उवाच।


यस्य बोधोदये तावत्स्वप्नवद्भवति भ्रमः।

तस्मै सुखैकरूपाय नमः शांताय तेजसे।। 177।।

अर्जयित्वाऽखिलानार्थान्‌ भोगानाप्नोति पुष्कलान्‌।

नहि सर्वपरित्यागमंतरेण सुखी भवेत।। 178।।

कर्तव्यदुःखमार्तंडज्वालादग्धांतरात्मनः।

कुतः प्रशमपीयूषधारा सारमृते सुखम्‌।। 179।।

भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित्परमार्थतः।

नात्स्यभावः स्वभावानां भावाभार्वावभाविनाम्‌।। 180।।

न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मनः पदम्‌।

निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरंजनम्‌।। 181।।

व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः।

वीतशोका विराजंते निरावरणदृष्टयः।। 182।।

समस्तं कल्पनामात्रमात्मा मुक्तः सनातनः।

इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत्‌।। 183।।


यस्य बोधोदये तावत्स्वप्नवद्भवति भ्रमः।

तस्मै सुखैकरूपाय नमः शांताय तेजसे।।


‘जिसके बोध के उदय होने पर समस्त भ्रांति स्वप्न के समान तिरोहित हो जाती है, उस एकमात्र आनंदरूप, शांत और तेजोमय को नमस्कार है।’

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