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निराकार, निरामय साक्षित्व (अष्‍टावक्र : महागीता - 71)

निराकार, निरामय साक्षित्व (अष्‍टावक्र : महागीता - 71)

Update: 2022-03-20
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Description

अष्टावक्र उवाच।


अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं वात्मनो मन्यते यदा।

तदा क्षीणा भवंत्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः।। 227।।

उच्छृंखलाप्यकृतिका थतिर्धीरस्य राजते।

न तु संस्पृहचित्तस्य शांतिर्मूढ़स्य कृत्रिमा।। 228।।

विलसन्ति महाभोगेैर्विशन्ति गिरिगह्वरान्‌।

निरस्तकल्पना धीरा अबद्धा मुक्तबुद्धयः।। 229।।

श्रोत्रियं देवतां तीर्थमंगनां भूपतिं प्रियम्‌।

दृष्ट्‌वा सम्पूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना।। 230।।

भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः।

विहस्य धिक्कृतो योगी न याति विकृतिं मनाक्‌।। 231।।

संतुष्टोऽपि न संतुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते।

तस्याश्चर्यदशां तां तां तादृशा व जानन्ते।। 232।।

कर्तव्यतैव संसारो न तां पश्यन्ति सूरयः।

शून्याकारा निराकारा निर्विकारा निरामयाः।। 233।।

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